ऐसा भी होता है.....

ऐसा भी होता है.....तब मेरी बेटी साक्षी कुछ महीने की ही थी, पैदा होते ही पीलिया हुआ, बमुश्किल किसी तरह ठीक हुई, एक दिन उसकी तबियत बहुत खराब हो गई, तो घर के नजदीक होली फेमिली हास्पिटल ले गया, वहां डाक्टरों ने उसे भर्ती कर लिया, एक दिन, दो दिन, तीन दिन हो गए, मैंने छुटटी नहीं ली, लेकिन शाम को जल्दी घर आकर अस्पताल में रुकने लगा। इस बीच मुझे बॉस ने एक काम सौंपा था, जो बेटी के इलाज से कहीं ज्यादा जरुरी था, काम था मालिक के रिवाल्वर का लाईसेंस बनवाना, विदेश से पढाई करके आए थे , इसलिए सब कुछ चाहिए था, कलम के सिपाही को रिवाल्वर थी, संपर्क मुझसे इसलिए किया गया, क्योंकि मालिक की हठ थी कि वो रिवाल्वर बनवाने की प्रक्रिया में खुद कहीं नहीं जाएंगे, जो कुछ भागदौड़ करनी है, वो मुझे ही करनी थी, मुलाजिम जो ठहरा, भाई लोगों वैसे भी दिल्ली में अखबार चलाने का लाईसेंस हो या फिर रिवाल्वर का लाईसेंस, दोनों ही काम पुलिस विभाग के पास है, आमतौर पर बाकी प्रदेशों की तरह डीएम या डीसी साहब के पास ये काम होता है। खैर मेरे एक साथी ब्लाग पर कमेंट में ठीक ही लिखा कि मैं यादों की पगडंडियों के सहारे आगे बढ़ रहा हूं, ये सब इसलिए लिख रहा हूं कि भाई लोगों ने मुझे जगाया है और दिल में जो कुछ टिस चुभती है, उसे शब्दों के माध्यम से आगे बढ़ाता हूं....ये केवल मेरी निजी राय है, प्रोफेशन या किसी व्यक्ति विशेष से कोई लेना देना नहीं है.....मैं बात कर रहा था रिवाल्वर के लाईसेंस के बारे में, मुझे जितनी चिंता अपनी बेटी के इलाज को लेकर होनी चाहिए थी, उससे कहीं ज्यादा चिंता मालिक के लाईसेंस को लेकर थी.....मैं जितनी बार हास्पिटल में डॉक्टरों से बात करता, उससे कहीं ज्यादा फालोअप मुझे लाईसेंस प्रक्रिया से जुडे पुलिस अधिकारियों से करना पड़ता था....खैर खबर मिली कि काम हो गया है, बस औपचारिकता पूरी करने के लिए डीसीपी लाईसेंसिंग के पास फिजीकल जाना है....मैंने मालिक को तुंरत खबर दी....पहले तो उन्होने लंबी सी सांस ली....फिर बोले क्या जाना जरुरी है, मैंने कहा, हां, फिर बोले ठीक है, कल का अपायंटमेंट फिक्स कर लो....तुम कहां मिलोगे, मैंने उनको बताया कि होली फेमिली हास्पिटल के गेट पर मिल जाउंगा....तुम्हे साथ चलना होगा....ठीक है....उन्होने एक बार भी ये नहीं पूछा कि मेरा हास्पिटल का नया ठिकाना क्यों है....मुझे उम्मीद थी कि वो पूछेंगे कि घर में कोई बीमार है क्या....लेकिन उन्होने अगले दिन मुझे हास्पिटल के गेट से अपनी मर्सडिज गाडी में पिक किया, रास्ते भर हथियार को लेकर बात होती रही....एक बार भी हास्पिटल के बारे में नहीं पूछा....मेरा दिमाग भी मीटिंग अच्छी हो जाए, इस तरफ तरफ चला गया....बाद में सब कुछ हो गया....लेकिन ये बात मुझे कई दिनों तक कचोटती रही...बस दिल बहलाने के लिए ख्याल अच्छा है वाली बात इसमें एक ये हुई कि मालिक ने मुझे अपने साथ वाली सीट पर बैठाया, एक दो बार रास्ते में उन्होने मेरे काम की तारीफ जरुर की।
तो साथियों इस दुनिया में किसी से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए।

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