घर बैठे कृष्णमूर्ति पद्वति से सीखिए ज्योतिषिय विधा - part 1





घर बैठे कृष्णमूर्ति पद्वति से सीखिए ज्योतिषिय विधा   - part 1
आइये केपी एस्‍ट्रोलॉजी सीखे- ये बहुत ही रोचक और सरल है बस थोडासा ध्यान लगाने की जरुरत है 


9 ग्रह, 12 राशि, 27 नक्षत्र=360 डिग्री=भचक्र
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कृष्णमूर्ति पद्वति किसी भी ज्योतिषिय विधा से सीखने में न केवल सरल है, अपितु एकदम सटीक भी है। कृष्णमूर्ति जी ने जब इसका आविष्कार किया तो सोचा भी नहीं होगा कि यह तेजी से लोकप्रिय होगी और हर आय, आयु वय के लोग इसे सीखना चाहेंगे। दक्षिण भारत से लेकर उत्तर भारत में इसे सिखाने के तरीके भी अलग-अलग हैं। यह इतनी आसान और रोचक है कि आप बातों-बातों में और अपने रोजमर्रा के कामकाज करते हुए आसानी से इसे सीख सकते हैं।

भचक्र (वकपंब)-सूर्य पथ वृत्ताकार 360 अंश लम्बा तथा 15 अंश चौड़ा होता है। इसे भचक्र कहते हैं।यह 12 बराबर भागों में बंटा हुआ है। प्रत्येक भाग 30 अंश का होता है। इसे राशि कहते हैं। इनके नाम क्रमशः मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन हैं। यह भचक्र 27 बराबर भागों में बंटा हुआ है। प्रत्येक भाग को नक्षत्र कहते हैं। प्रत्येक नक्षत्र 13 अंश 20 कला का होता है। इनके नाम क्रमशः अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आद्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वभाद्र, उत्तराभाद्र और रेवती हैं।
ग्रह नौ होते हैं। सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहू, और केतू। तीन नए ग्रह प्लूटो, युरेनस एवं नेप्चून हैं। (इन तीन नए ग्रहों के बारे में फिर विवेचन करेंगे)।

राशियों के स्वामी, ग्रह होते हैं जो निम्न प्रकार हैं।


1- मेष मंगल
2- वृष शुक्र
3- मिथुन बुध राशि स्वामी चक्र
4- कर्क चंद्र
5- सिंह सूर्य
6- कन्या बुध
7- तुला शुक्र
8- वृश्चिक मंगल
9- धनु गुरु
10- मकर शनि
11- कुम्भ शनि
12- मीन गुरु

सूर्य एक राशि में लगभग एक माह तक रहता है।
चंद्र एक राशि में लगभग सवा दो दिन तक रहता है।
मंगल एक राशि में लगभग डेढ़ माह तक रहता है।
बुध एक एक राशि में लगभग एक माह तक रहता है।
गुरु एक राशि में लगभग एक वर्ष तक रहता है।
शुक्र एक राशि में लगभग एक माह तक रहता है।
शनि एक राशि में लगभग ढाई वर्ष तक रहता है।
राहू एक राशि में लगभग डेढ़ वर्ष तक रहता है।
केतु एक राशि में लगभग डेढ़ वर्ष तक रहता है।

निम्न तालिका ग्रहों की क्रमश: उच्च, नीच एवं स्वग्रही राशियां दर्शाती है।

सूर्य 1 मेष 5 सिंह 7 तुला 5 सिंह
चंद्र 2 वृष 2 वृष 8 वृश्चिक 4 कर्क
मंगल 10 मकर 1 मेष 4 कर्क 1 मेष, 8 वृश्चिक
बुध 6 कन्या 3 मिथुन 12 मीन 3 मिथुन, 6 कन्या
गुरु 4 कर्क 9 धनु 10 मकर 9 धनु, 12 मीन
शुक्र 12 मीन 7 तुला 6 कन्या 2 वृष, 7 तुला
शनि 7 तुला 11 कुम्भ 1 मेष 10 मकर, 11 कुम्भ

हम सभी जानते हैं कि मकर संक्रांति सदैव 14 जनवरी को होती है। मकर संक्रांति का अर्थ सूर्य का मकर राशि में प्रवेश होता है तथा सूर्य एक राशि में एक माह तक रहता है। अर्थात-सूर्य 14 जनवरी से 13 फरवरी तक दसवीं राशि मकर में रहता है।

सूर्य

14 जनवरी से 13 फरवरी तक दसवीं राशि मकर में रहता है।
14 फरवरी से 13 मार्च तक ग्यारहवीं राशि कुंभ में रहता है।
14 मार्च से 13 अप्रैल तक बारहवीं राशि मीन में रहता है।
14 अप्रैल से 13 मई तक पहली राशि मेष में रहता है।
14 मई से 13 जून तक दूसरी राशि वृष में रहता है।
14 जून से 13 जुलाई तक तीसरी राशि मिथुन में रहता है।
14 जुलाई से 13 अगस्त तक चौथी राशि कर्क में रहता है।
14 अगस्त से 13 सितम्बर तक पांचवीं राशि सिंह में रहता है।
14 सितम्बर से 13 अक्तूबर तक छठी राशि कन्या में रहता है।
14 अक्तूबर से 13 नबम्बर तक सातवीं राशि तुला में रहता है।
14 नबंवर से 13 दिसंबर तक आठवीं राशि वृश्चिक में रहता है।
14 दिसंबर से 13 जनवरी तक नौवीं राशि धनु में रहता है।

27 नक्षत्र एवं उनके स्वामी

नोट: निम्न सारणी में 1 अश्विनी, 10 मघा, 19 मूल के स्वामी केतू और इसी प्रकार 2 भरणी, 11 पूर्वाफाल्गुनी, 20 पूर्वाषाढ़ के स्वामी शुक्र क्रम से होते हैं.—
नक्षत्र नक्षत्र स्वामी
1 अश्विनी 10 मघा 19 मूल केतू
2 भरणी 11 पूर्वाफाल्गुनी 20 पूर्वाषाढ़ शुक्र
3 कृतिका 12 उत्तराफाल्गुनी 21 उत्तराषाढ़ सूर्य
4 रोहिणी 13 हस्त 22 श्रवण चंद्र
5 मृगशिरा 14 चित्रा 23 धनिष्ठा मंगल
6 आद्रा 15 स्वाति 24 शतभिषा राहू
7 पुनर्वसु 16 विशाखा 25 पूर्वाभाद्र गुरु
8 पुष्य 17 अनुराधा 26 उत्ताराभाद्र शनि
9 आश्लेषा 18 ज्येष्ठा 27 रेवती बुध

लग्न:किसी निर्धारित समय पर पूर्व दिशा में क्षितिज पर जहां सूर्योदय होता है, वहां जो राशि उदय हो रही होती है, वह राशि लग्न कहलाती है।

1- एक राशि लगभग दो घंटे तक रहती है। चौबीस घंटों में बारह राशियाँ पृथ्वी का एक चक्कर लगा लेती हैं।

2- जिस राशि में सूर्य होता है, सूर्योदय के समय वही राशि उदय हो रही होती है।

3- राहू-केतू सदैव एक दूसरे से विपरीत दिशा अर्थात एक दूसरे से 180 (डिग्री) अंश पर होते हैं?

4- बुध सदैव सूर्य के साथ अथवा सूर्य से एक भाव आगे या पीछे हो सकता है।

5- शुक्र सदैव सूर्य के साथ अथवा सूर्य से दो भाव तक आगे या पीछे हो सकता है।

6- एक राशि 30 अंश की होती है।

7- एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र 13 अंश 20 कला का होता है।

8- प्रत्येक नक्षत्र में 4 चरण होते हैं। एक चरण 3 अंश 20 कला का होता है।

9- कुंडली में पहले भाव में जो राशि होती ह, वह राशि उस जातक की लग्न कहलाती है।

10- कुंडली में चंद्र जिस राशि में होता है, वह राशि उस जातक की राशि कहलाती है।

11- अमावस्या के दिन सूर्य-चंद्र एक ही राशि में एक ही भाव में होते हैं।

12- चन्द्र 24 घंटे तक एक ही नक्षत्र में रहता है।

13- सूर्य और चंद्र सदैव सीधी गति से चलते हैं।

14- मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि की गति भी सीधी है, किन्तु कभी-कभी इनमें से कोई ग्रह वक्री हो कर मार्गी हो जाता है।

15- राहू और केतू सदैव उलटी गति से ही चलते हैं।

16- राहू और केतू ठोस ग्रह नहीं हैं। यह चंद्र जहां सूर्य पथ को उत्तर तथा दक्षिण में काटता है, उन बिंदुओं को ही राहू और केतू कहते हैं। इन बिंदुओं का प्रभाव ग्रहों के प्रभाव से अधिक होने के कारण इन्हें भी ग्रह मान लिया है।

साम्पातिक काल

यह सूर्य घड़ी का समय होता है तथा हमारी घड़ी से यह 24 घंटों में लगभग 4 मिनट अधिक तेज चलती है। कृष्णमूर्ति पंचांग में प्रातः पांच बजकर तीस मिनट का साम्पातिक काल एवं ग्रहों की दैनिक स्थित होती है। हिंदी पंचांग के पांच अंग होते हैं-तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण। लग्न सारिणी में दिए गये साम्पातिक काल के समय के भाव स्पष्ट लग्न, द्वितीय, तृतीय, दशम, एकादश एवं द्वादश भाव दिए होते हैं। इन भावों में 6 राशियां जोड़ने से इनके सामने वाले भाव (चतुर्थ, पंचम, छठा, सप्तम, अष्टम व नवम स्पष्ट हो जाते हैं।) बाजार में उपलब्ध सारिणी में भाव सायन पद्धति में दिए हैं। सायन में से अयनांश घटाने से निरयन भाव निकल आते हैं। भारत में निरयन पद्धति पर ही ज्योतिष आधारित है।

अयनांश

पृथ्वी अपनी धुरी से कुछ झुकी हुई है। यह झुकाव लगभग 1 (एक ) मिनट प्रति वर्ष बढ़ जाता है। वर्ष 1999 में यह झुकाव 23 डिग्री 45 मिनट था और वर्ष 2014 में केपी अयनांश 23.57.21 है।

भारतीय मानक समय

भारत लगभग 70 अंश देशांतर से 95 अंश देशांतर तक पश्चिम से पूर्व तक फैला हुआ है। भारतीय समय निर्धारण हेतु 82 अंश 30 कला का देशांतर मानक मान लिया है। इस मानक से समस्त भारत की घड़ियां समय दर्शाती हैं, जिसे हम भारतीय मानक समय कहते हैं। विश्व के समस्त देशों के समय उन देशों के मानक पर निर्भर करते हैं। उदाहरण के लिए इंग्लेंड का मानक 0 अंश देशांतर है। भारत के मानक से यह 82 अंश 30 कला कम है। प्रत्येक अंश पर समय के 4 मिनट का अंतर पड़ता है। अतः 82 अंश 30 कला का गुणा 4 मिनट से किया तो आया = 330 मिनट = 5 घंटे 30 मिनट। अतः इंग्लैण्ड का समय भारत के समय से 5 घंटे 30 मिनट कम है, क्योंकि इंग्लैण्ड का मानक भारत से कम है। ढाका का मानक 90 अंश है, जो भारत के मानक से 7 अंश 30 कला अधिक है। 7 अंश 30 कला गुणा 4 मिनट = 30 मिनट। इसलिए ढाका का समय भारत से 30 मिनट अधिक है।
मथुरा का देशांतर 77 अंश 41 कला है, जो भारत के मानक से 4 अंश 49 कला कम है। अतः मथुरा के समय के लिए 4 अंश 49 कला गुणा 4 मिनट = 19 मिनट 16 सेकेण्ड अर्थात मथुरा का समय भारतीय मानक समय (जो हमारी घड़ियां दर्शाती हैं) से 19 मिनट 16 सेकेण्ड कम होता है। इसे हम मथुरा का स्थानीय समय कहते हैं। इसी प्रकार आप अपने शहर का स्थानीय समय निकाल सकते हैं। ज्योतिष में जन्म कुंडली बनाने में जन्म स्थान के स्थानीय समय का ही प्रयोग किया जाता है। प्रश्न कुंडली बनाने में हम जिस स्थान पर होते हैं, वहां के स्थानीय समय का प्रयोग करते हैं।

लग्न

ज्योतिष में लग्न की सही गणना अत्यंत महत्वपूर्ण है। सरल विधि नीचे दी जा रही है.
हमें दिनांक 1 नवम्बर सन 2013 को प्रातः 10 बजकर 20 मिनट पर मथुरा में लग्न निकालनी है तो-
भारतीय मानक समय (घड़ी का समय ) = 10-20-00
मथुरा के स्थानीय समय के लिए 19 मिनट
16 सेकेण्ड घटाएंगे (-) 00-19-16
मथुरा का स्थानीय समय = 10-00-44
पंचांग में 1 नवम्बर 2013 को प्रातः
5-30 पर साम्पातिक काल दिया है, अतः
5-30 घटाएं (-) 05-30-00
5- 30 बजे से स्थानीय समय तक बीता
हुआ समय (=)04-30-44
प्रातः 5-30 बजे पंचांग में साम्पातिक काल (+) 08-09-37
बीते हुए समय 04-30-44 में 10 सेकेण्ड
प्रति घंटे के हिसाब से (+)00-00-45
साम्पातिक काल = 12-41-06
लग्न सारिणी में 12-41-06 साम्पातिक काल
पर निरयन लग्न (धनु) 03-50-04
(नोट : सायन लग्न सारिणी में दी हुई सायन लग्न में से उस वर्ष का अयनांश घटा कर लग्न ज्ञात करते हैं)

शासक ग्रह (RULING PLANETS)

किसी समय जो ग्रह शासन करते हैं, वह ग्रह उस समय के शासक ग्रह कहलाते हैं। यह निम्नानुसार पांच होते हैं…

1-वारेश:सोमवार का चंद्र, मंगलवार का मंगल, बुधवार का बुध, गुरूवार का गुरु, शुक्रवार का शुक्र, शनिवार का शनि, रविवार का रवि (सूर्य)।

2-चन्द्र राशीश:चंद्र जिस राशि में हो, उस राशि का स्वामी।

3-चंद्र नक्षत्रेश:चन्द्र जिस नक्षत्र में हो, उस नक्षत्र का स्वामी।

4-लग्नेश: उस समय उदित हो रही लग्न का स्वामी जैसे: मेष का स्वामी मंगल, वृष का स्वामी शुक्र, मिथुन का स्वामी बुध, कर्क का स्वामी चन्द्र इत्यादि।

5-लग्न नक्षत्रेश: उदित लग्न जिस नक्षत्र में हो, उस नक्षत्र का स्वामी लग्न नक्षत्रेश होता है।

उपरोक्त क्रम में शासक ग्रह उत्तरोत्तर बलवान होते हैं। राहू और केतू छाया ग्रह हैं। यह प्रथम तो जिन ग्रहों के साथ बैठे होते हैं, उनका रूप बन जाते हैं, फिर उन ग्रहों का रूप रखते हैं, जो ग्रह उन्हें देखते हैं और अंततः जिस राशि में बैठे होते हैं, उस राशि के स्वामी का रूप धर लेते हैं।

विशेष: जिन राशियों में राहू और केतू चल रहे हों, उन राशियों के स्वामी यदि शासक ग्रह हों तो राहु और केतू को भी शामिल कर लेते हैं। जैसे यदि राहु कर्क राशि में चल रहे हों और कर्क का स्वामी चंद्र शासक ग्रहों में हो तो राहु को भी शासक ग्रहों में शामिल कर लेते हैं। यदि सोमवार हो, जिसका स्वामी चंद्र है तो भी राहु को शासक ग्रहों में शामिल कर लेंगे। इसी प्रकार यदि केतू मकर राशि में हो और शासक ग्रहों में शनि हो तो केतू को भी शामिल कर लेते हैं।

यदि शासक ग्रह के साथ कोई अन्य ग्रह बैठा हो तो उस ग्रह को भी शासक ग्रहों में शामिल कर लेते हैं। शासक ग्रहों में यदि कोई ग्रह वक्रीय हो तो वह जब तक मार्गी होकर जिस अंश से वक्रीय हुआ हो, उसी अंश पर न आ जाये तब तक फल नहीं देता है। यदि कोई ग्रह वक्रीय ग्रह के नक्षत्र या उप नक्षत्र में हो तो उस ग्रह को शासक ग्रहों से निकाल देते हैं। वह ग्रह फल नहीं देता है। यदि लग्न का उप नक्षत्र शीघ्र गामी ग्रह होता है तो कार्य शीघ्र होता है और यदि मन्द गति वाला होता है तो कार्य विलंब से होता है। वह शासक ग्रह जो ऐसे नक्षत्र में हो, जिसका स्वामी ऐसे भावों में बैठा हो या ऐसे भावों का स्वामी हो, जो कार्य से सम्बंधित नहीं होते हैं, वह फल देने वाले नहीं होते हैं। उन्हें शासक ग्रहों से निकाल देना चाहिए।

जातक से कोई एक गिनती 1 से लेकर 249 के बीच से पूंछते हैं। यदि उस नंबर का उप नक्षत्र लग्न या चन्द्र नक्षत्रेश होता है तो वह कार्य होता है। यदि नंबर का उप नक्षत्र लग्नेश या चन्द्र राशीश हो तो उस कार्य के होने में संशय होता है। इस हालत में उससे दूसरा नंबर पूंछते हैं। फिर देखते हैं कि कार्य होगा कि नहीं। यदि नंबर का उप नक्षत्र शासक ग्रहों में नहीं होता है तो वह कार्य नहीं होता है।

यदि कोई कार्य 24 घंटों के अन्दर होना होता है तो लग्न को आगे बढ़ाते हुए शासक ग्रहों पर ले जाते हैं। लग्न जिन अंशों पर शासक ग्रहों पर आती है, तब वह कार्य होता है। इसी प्रकार एक माह में जो कार्य होना होता है तो चन्द्र को आगे बढ़ाते हुए शासक ग्रहों पर ले जाते हैं। जिन अंशों पर चन्द्र शासक ग्रहों पर आता है, तब वह कार्य होता है। इसी प्रकार एक वर्ष में होने वाले कार्य में सूर्य को आगे शासक ग्रहों पर बढ़ाते हैं,जिन अंशों पर सूर्य शासक ग्रहों पर आता है, तब वह कार्य होता है और एक साल से ज्यादा की अवधि में होने वाले कार्यों के लिए गुरु को शासक ग्रहों पर आगे चलाते हैं, जब और जिन अंशों पर वह शासक ग्रहों पर आता है, उस समय कार्य होता है।

केपी पद्धति से कुंडली निर्माण

कृष्णामूर्ति पद्धति में भाव संधि अथवा भाव मध्य नाम की कोई चीज नहीं होती है. इस पद्धति में केवल भाव प्रारम्भ ही होता है. जैसे प्रथम भाव-प्रथम भाव के आरम्भ से द्वितीय भाव आरम्भ तक होता है. द्वितीय भाव-द्वितीय भाव प्रारम्भ से तृतीय भाव प्रारम्भ तक होता है. इसी प्रकार एक से द्वादश भाव तक होता है. इस पद्धति में सही फलादेश पाने के लिए कृष्णामूर्ति अयनांश ही प्रयोग करें, जो प्रचलित लाहिड़ी के अयनांश से लगभग 6 मिनट कम है।

के.पी.पद्धति से कुंडली निर्माण हेतु दो पुस्तिकाओं की आवश्यकता होती है. 1-एफीमैरिस (ग्रह स्पष्ट), जिसमें प्रातः 5:30 बजे का साम्पातिक काल एवं समस्त ग्रहों के रेखांश होते हैं. दूसरी पुस्तक भाव सारिणी, जिसमें 0 से 60 अक्षांशों तक प्रति 4 मिनट के अंतर से साम्पातिक काल 04 मिनट से 24.00 तक के लग्न, द्वितीय भाव, तृतीय भाव, दशम भाव, एकादश भाव व द्वादश भावों के भाव स्पष्ट दिए होते हैं. शेष भावों के लिए इनसे सप्तम भाव में 6 राशियाँ जोड़ देते हैं. जैसे-प्रथम भाव स्पष्ट में 6 राशियाँ जोड़ने से सप्तम भाव स्पष्ट, दूसरे भाव स्पष्ट में 6 राशियाँ जोड़ने पर अष्टम भाव स्पष्ट होता है. तृतीय भाव स्पष्ट में 6 राशियाँ जोड़ने पर नवम भाव स्पष्ट होता है. इसी प्रकार 12 भावों को स्पष्ट कर लेते हैं. यह सभी भाव सायन में होते हैं. इन्हें निरयन भाव बनाने के लिए प्रत्येक भाव से कृष्णामूर्ति अयनांश घटा देने पर निरयन भाव स्पष्ट हो जाते हैं.  .......जारी

(यह इनपुट ज्योतिषचार्य पंडित भवानी  वैदिक द्वारा उपलब्ध कराया गया है)










































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