जीवन का यह मोड़ और भारत की आज़ादी



जीवन का यह मोड़
25x3 अर्थात् 75, यह संख्या यदि वर्ष के साथ जोड़ दी जाए तो हमारी संस्कृति के अनुसार यह चौथेपन की शुरूआत अर्थात् सन्यास आश्रम में प्रवेश- जिसका अर्थ है कि अब से जो भी कार्य जीवन में किया जाए वह परमार्थ के लिए हो, समाज और राष्ट्र के विकास के लिए हो और अपने लिए केवल उतनी ही सुविधाएं रखीं जाएं जिनसे यह उक्ति चरितार्थ होती हो, ‘साईं इतना दीजिए जिसमें कुटुम्ब समाए, मैं भी भूखा न रहूं, अतिथि न भूखा जाए‘। सन्यास का केवल यह अर्थ कदापि नहीं है कि संसार से हटकर जंगलों, पहाड़ों और निर्जन स्थानों में रहने चले जाया जाए। यह एक सच है कि प्रत्येक व्यक्ति न तो इस तरह का जीवन व्यतीत कर सकता है और न ही आज के युग में संभव है। इसलिए 75 वर्ष का होने पर व्यक्ति सांसारिक कार्यों में लिप्त रहने के बावजूद स्वंय को निस्पृह भाव से बनाकर रखे और शेष जीवन इस प्रकार बिताए कि अपना अन्त होने पर समाज उसका स्मरण यादगार रूप में करे।
हालांकि यह सब बातें जितना आसान कहना है, उतना ही कठिन इनका पालन करना है, लेकिन फिर भी इस आयु का होने पर इसका प्रयत्न तो किया ही जा सकता है।
आज यह चर्चा करने का कारण यह भी है कि मैंने पिछले माह 18 जुलाई को अपने जीवन के 75 वर्ष पूर्ण कर लिए हैं। अब जो करना है वह यह सोचकर करना है कि एक तो इस अवधि में जो कुछ किया उस पर चिन्तन मनन करने के बाद यह तय किया जाए कि जो कुछ अब तक करने से रह गया हो, उसकी पहचान कर उसकी शुरूआत की जाए। मन में यह आना स्वाभाविक है कि अब तक जि़न्दगी ने बहुत कुछ दिया तो अब उसका कुछ अंश या जितना हा सके, जि़न्दगी को लौटाया जाए और उसका स्वरूप कुछ ऐसा हो कि कुछ भी छोड़ने का पछतावा न हो।


स्वदेशी भारत
इस सप्ताह विश्वविख्यात योगाचार्य स्वामी बाबा रामदेव से भेंट हुई। मैंने उनसे कहा कि अभी तक हम अपने अधिकतर कार्यों में विदेशों से प्रेरणा लेते हैं, विदेशियों का अनुसरण करतेे हैं। उदाहरण के लिए भारत की कोई उपलब्धि आम तौर से अपने देश में तब स्वीकृति पाती है जब वह विदेश से होकर आई हो, विशेषकर पश्चिमी देशों ने उस पर अपना ठप्पा लगा दिया हो। आज स्थिति बहुत बदल चुकी है। अब तो होना यह चाहिए कि विदेशों में भारतीयता की नक्ल होनी  चाहिए। आज जिस तरह से स्वदेशी उत्पादों, तकनीक, वैज्ञानिक अनुसंधान और विभिन्न क्षेत्रों में देश का परचम लहरा रहा है, उससे यह भावना तो बलवती होती ही है कि अब वह समय लद गया जब हम पर गरीब, अशिक्षित होने से लेकर असम्य होने तक का तमगा लगा दिया जाता था। बाबा रामदेव ने कहा कि उनके भी यही विचार हैं। यह सत्य है कि आज उनके संस्थान पतजंलि ने विदेशी कम्पनियों के विभिन्न उत्पादों से देशवासियों का मोहभंग कर दिया है। स्थिति यह है कि स्वदेशी उत्पादों का उपयोग करना अब संभ्रान्त होने की निशानी समझा जाने लगा है जबकि कुछ समय पहले तक ‘फारेन ब्राण्ड‘ का ही सिक्का चलता था।
भारत छोड़ो का नया रूप
इस माह हम अपनी आज़ादी के निर्णायक संग्राम के शुरू होने का भी 75वां दिवस मना रहे है। जिस तरह व्यक्ति के जीवन में यह उम्र का विशेष पड़ाव होता है, उसी तरह राष्ट्र के जीवन में भी इसका विशेष महत्व है। हमारी आजादी के भी 70 वर्ष पूर्ण हो रहे है, इसलिए यह सोचने का सही समय है कि स्वतंत्र देश के रूप में पांच वर्ष बाद भारत कैसा दिखना चाहिए?
भारत को जातिवाद, निर्धनता और भ्रष्ट आचरण से बाहर निकलना ही होगा। वर्तमान सरकार द्वारा इस दिशा में किये जा रहे प्रयत्न प्रशंसनीय तो है लेकिन उनमें वह तीखापन नहीं है जिनसे इन दोषों से पूर्णतः मुक्त हुआ जा सके। इसका कदाचित कारण यह है कि वर्षों तक हमारे यहां पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा इन बुराईयों का यशोगान करते हुए इन्हें महिमा मंडित तक करने की नीतियां चलती रही जिसका नतीजा यह हुआ कि एक विशाल आबादी ने सरकारी सुविधाआंे, सबसिडी और मुफ्त के संसाधनों पर निर्भर रहने को ही जीवनयापन का ज़रिया बना लिया।
जातिवादी आरक्षण और गरीबी उन्मूलन के नाम पर मिलने वाली सुविधाओं से देश को मुक्त करने का समय आ गया है। इसके स्थान पर सभी को समान सुविधाएं और बराबरी का सम्मान दिये जाने का यही समय है। इसके साथ ही भ्रष्ट आचरण से भी देश को मुक्त करना आवश्यक है। यदि ऐसा हो जाता है तो वह समय दूर नहीं जब विदेशों में भारतीयता की जोर शोर से नकल हुआ करेगी। खानपान, रहन सहन और वेशभूषा में तो हमारी नकल किये जाने की शुरूआत हो चुकी है। जिस दिन हमारे उत्पादों, टेक्नालॉजी और तकनीकों की नकल दूसरे देशों में होने लगेगी, वह हमारे स्वर्णकाल का आरम्भ होगा।
अंगदान दिवस
13 अगस्त को प्रतिवर्ष भारत में अंगदान दिवस मनाया जाता है। इसका उद्देश्य यही है कि जनमानस को इस बारे में जागरूक किया जाए कि ईश्वर ने हमें यह जो शरीर दिया है, उसका उपयोग कुछ इस तरह से भी हो सकता है जिसमें कि यदि कोई अंग या उसका कोई भाग दूसरे व्यक्ति को मिल जाए तो उसे जीवनदान मिल सकता है। ऐसा करने से अंगदान करने वाले व्यक्ति का जीवन तो पहले की भांति चलता ही रहता है लेकिन इससे दूसरे व्यक्ति की जि़न्दगी बच जाती है।
हमारे देश में लगभग 5 लाख व्यक्ति केवल इसलिए मर जाते हैं क्योंकि उनके किसी महत्वपूर्ण अंग ने काम करना बंद कर दिया है और यदि उनके इस अंग की पूर्ति हो जाए तो जीवनदान मिल सकता है। जो व्यक्ति अंगदान कर रहा है उसकी भूमिका ईश्वर की तरह हो जाती है। कोई भी व्यक्ति आठ लोगों का जीवन तो बचा ही सकता है। जिन अंगों को दूसरों को दिया जा सकता है, उनमें किडनी, लंग, हार्ट, आंख, लीवर, पैनक्रिया, कोर्निया, छोटी आंतें, त्वचा के टिश्यू, हड्डियां और उनके टिश्यू, हार्ट वाल्व और नाडि़यां हैं। आंकड़ों के मुताबिक 20 लाख लोगों में से केवल एक व्यक्ति ही अंगदान के लिए तैयार होता है।
मृत्यु के बाद भी इन अंगों को दिया जा सकता है बशर्ते कि अपने जीवनकाल में ही उन्हें दान करने का संकल्प कर लिया जाए और इसके लिए अधिकृत संस्थानों में इस बारे में पंजीकरण करा लिया जाए। ब्रेन डेड अर्थात् मस्तिष्क की क्रिया समाप्त होने के बाद निर्धारित अवधि में मृत शरीर से ये सभी अंग निकाले जा सकते हैं और शेष शरीर अन्तिम क्रिया के लिए उपलब्ध करा दिया जाता है।
असल में अंगदान की तरफ रूझान न होने का प्रमुख कारण अंधविश्वास है जिनमंे शरीर को मुक्ति न मिलने, अगला जन्म, दान कर दिये अंगों के बिना होना और इसी तरह की बातें हैं जिनका कोई मतलब नहीं होता।
कानून में बदलाव हो
अंगदान के प्रति उदासीनता का भाव होने का एक बड़ा कारण हमारे यहां इस संबंध में बने कानूनों का जरूरत से ज्यादा कड़ा होना भी है। मिसाल के तौर पर किडनी केवल वही व्यक्ति दान कर सकता है जो या तो सगा संबंधी हो या फिर कोई अनजान व्यक्ति अपनी मर्जी से, बिना किसी दबाब या उसके बदले में कोई पैसा लिए किडनी देने की पेशकश करे।
जरा सोचिए, जब आम तौर से अपने परिवार के लोग और सगे संबंधी भी ऐसे अवसर पर कन्नी काट लेते हैं तो फिर कोई अनजान व्यक्ति क्योंकर आगे आएगा? लेकिन यदि हां, यदि कोई व्यक्ति सेलेब्रिटी है, महत्वपूर्ण पद पर आसीन है तो इसकी संभावना हो भी सकती है, जैसा कि विदेश मंत्री श्रीमति सुषमा स्वराज के मामले में हुआ। उन्हें किडनी देने के लिए अनेक लोग आगे आ गये थे लेकिन क्या यह किसी सामान्य व्यक्ति के लिए संभव है! उसके लिए दो ही रास्ते हैं पहला तो यह कि वह रिस्क लेकर ओपन मार्केट से किडनी खरीदे अथवा अपने आप को मृत्यु के आगोश में  छोड़ दे।
इसी तरह दूसरे अंग भी है जिनके दिये जाने पर अनेक तरह के प्रतिबंध लगे हुए हैं जिनका पूरा करना आसान नहीं है और अगर किसी तरह पूरे कर भी लिए गये तो ज़रूरी नहीं कि मरीज तब तक जीवित भी रहे। हर साल डेढ़ से दो लाख तक किडनी ट्रांसप्लाण्ट की जरूरत है लेकिन उपलब्ध केवल 3 हजार के लगभग है।
हमारे शरीर के अनेक अंग ऐसे हैं जिनका कुछ भाग यदि दूसरे को दे दिया जाए तो वे 6 महीने में पुनः विकसित हो जाते हैं। कुछ अंग ईश्वर ने हमें दो दो के हिसाब से दिये हैं, कदाचित इसलिए कि एक खराब होने पर दूसरा काम करना शुरू कर दे या दोनों स्वस्थ हैं तो उनमें से एक किसी अन्य व्यक्ति को दिया जा सके।
सरकारी और गैरसरकारी संस्थानों द्वारा इस बारे में अधिक से अधिक प्रचार प्रसार किये जाने की आवश्यकता है। ां हमारे कानूनों को भी लचीला बनाने की जरूरत है। यदि ऐसा हो जाए तो अनेक बेशकीमती जीवन बचाए जा सकते हैं।

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