घर बैठे कृष्णमूर्ति पद्वति से सीखिए ज्योतिषिय विधा - part 2




एक चार्ट जिसमें 12 राशियों के स्वामी, नक्षत्र स्वामी एवं उप स्वामी होते हैं।

कुंडली बनाने के लिए सबसे पहले तो हम बालक की जन्म तारीख, जन्म समय व जन्म स्थान के अनुसार लग्न स्पष्ट करते हैं. कृष्णामूर्ति पद्धति से किसी बालक का जन्म 01.05.2005 को प्रातः 10 बजकर 15 मिनट पर आगरा उत्तर प्रदेश में हुआ.

1-भारतीय मानक समय 10.15.00 बजे
2-भारतीय मानक 82.30 (-) आगरा 78.00 गुणा 4 00.18.00
3-स्थानीय समय (=) 09.57.00
4-एफीमैरिस में प्रातः 05.30 पर साम्पातिक काल (-) 05.30.00
5-05.30 से स्थानीय समय का अंतर (=) 04.27.00
6-प्रातः 05-30 पर साम्पातिक काल (+) 20.06.05
7-क्रम 5 पर साम्पातिक काल का अंतर 10 सेकेण्ड प्रति घंटा (+) 00.00.45
8-आगरा में प्रातः 10.15 पर साम्पातिक काल (=) 26.33.50
(-) 24.00.00
प्रातः 10.15 पर साम्पातिक काल 02.33.50
भाव सारिणी में 02.33.50 पर सायन लग्न 108.55.23
कृष्णामूर्ति अयनांश 23.50.13 घटाने पर (-) 23.50.13
शुद्ध निरयन लग्न (=)85.05.10

अर्थात मिथुन लग्न होगी 25.10 डिग्री की, इस तरह किसी भी कुंडली की लग्न आसानी से स्पष्ट हो जाती है. अब ग्रहों की उच्च-नीच स्थिति भी समझ लेते हैं. वैदिक ज्योतिष में किसी भी ग्रह को उनकी उच्च या नीच राशि के हिसाब से उस ग्रह को उच्च या नीच मान लिया जाता है, जबकि यह पूर्ण सत्य नहीं है कृष्णमूर्ति ज्योतिष में वैज्ञानिक आधार से किसी भी ग्रह के उच्च या नीच होने की स्थिति को समझ सकते हैं. दरअसल वैदिक ज्योतिष में जहाँ ग्रह को ही पूर्ण मान्यता दी गई है वहीँ के पी ज्योतिष में भाव (कस्प या नक्षत्र नवांश ) को काफी कुछ माना गया है. कस्प की डिग्री से ही ग्रह का बलाबल पता चलता है. के पी में किसी भी ग्रह या उप ग्रह के नक्षत्र स्वामी को मान्यता दी गई है यानि कोई भी ग्रह या उप ग्रह अपने नक्षत्र स्वामी की स्थिति के आधार पर परिणाम देता है यदि नक्षत्र स्वामी उच्च या नीच का है. तो वह उसी के हिसाब से फल देगा.

कोई भी ग्रह उच्च या नीच का वास्तब में कब होता है…मान लीजिये वैदिक ज्योतिष के अनुसार गुरु मकर राशि में है तो वह नीच का होगा, और शुक्र यदि मीन राशि में है तो वह उच्च का माना जाता है. लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है. मान लीजिये गुरु कर्क राशि में 15 डिग्री का है तो क्या वह उच्च का माना जायेगा? जी नहीं, क्यों ? क्युकि गुरु कर्क राशि में केवल 05 डिग्री तक ही उच्च के परिणाम देता है, इससे ज्यादा डिग्री होने पर वह साधारण स्थिति में आ जाता है. किसी भी ग्रह के उच्च या नीच प्रभाव के लिए उसकी कक्षा उस स्थिति में होनी चाहिए, जो डिग्री से तय होती है। किसी भी भाव या कस्प की अधिकतम 30 डिग्री होती है और ग्रहों की उच्चता व नीचता के लिए एक निर्धारित डिग्री मानक है।
कोई भी ग्रह किस राशि में उच्च या नीचत्व कब प्राप्त करता है, इसके लिए नीचे दी गयी टेबल देखें।

ग्रह       उच्च           नीच

सूर्य       10 डिग्री मेष      10 डिग्री तुला
चंद्र        3 डिग्री वृष        3 डिग्री वृश्चिक
मंगल     28 डिग्री मकर   28 डिग्री कर्क
बुध       15 डिग्री कन्या    15 डिग्री मीन
गुरु        5 डिग्री कर्क        5 डिग्री मकर
शुक्र       27 डिग्री मीन     27 डिग्री कन्या
शनि      20 डिग्री तुला    20 डिग्री मेष
राहु       20 डिग्री वृष     20 डिग्री वृश्चिक
केतु       20 वृश्चिक         20 डिग्री वृष

कृष्णमूर्ति पद्धति में जातक फलादेश के लिए नक्षत्र और उसके उप नक्षत्र का प्रयोग करते हैं।  कृष्णमूर्ति प्रश्न कुंडली में 249 तक के अंकों के उप नक्षत्र निर्धारित किए हैं। इसमें भावपरक कारकों एवं तात्कालिक ग्रहों (रूलिंग प्लानेट्स ) के प्रयोग को जातक के फलित कथन में विशेष रूप से महत्त्व दिया है। इस पद्धति में यह देखते हैं कि ग्रह किस ग्रह के नक्षत्र में है एवं उस नक्षत्र का अधिपति (स्वामी) किस भाव में स्थित है तथा नक्षत्र अधिपति किन भावों का स्वामी है। इसी नियम के आधार पर जातक को फल बताया जाता है। केपी में भावों के कारकत्व को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। वैदिक ज्योतिष में राशियों का सूक्ष्म फल जानने के लिए नवांश का प्रयोग करते हैं। यानि एक राशि के समान रूप से नौ भाग करते हैं। विंशोत्तरी दशा पद्वति में जन्मकालीन चंद्रमा के अंश एक समान होने पर त्रिकोणगत राशियां ( जैसे 1-5-9, 2-6-10, 3-7-11, 4-8-12, में नक्षत्र स्वामी एक ही होता, जिसे महादशा का स्वामी कहा जाता है और इसके बाद क्रमानुसार दशा स्वामी होते हैं।

कृष्णमूर्ति जी ने अपने अध्ययन में पाया कि जब एक ही नक्षत्र अथवा एक से दूसरे त्रिकोण में आने वाली राशियों में स्थित नक्षत्र में एक से अधिक ग्रह हों तो सबका नक्षत्र स्वामी एक ही होते हुए भी उनके फल अलग-अलग मिलते हैं। यह एक चौंकाने वाली थी, लिहाजा उन्होंने इसके परिणाम देखने के लिए नक्षत्र का विभाजन अन्तर्दशा के अनुसार किया, जैसा कि चंद्रमा की दशाओं में होता है। नक्षत्र को विंशोत्तरी दशा के अनुसार नौ भागों में विभाजित किया। इस विभाजित नक्षत्र के भाग को उप नक्षत्र (सब लार्ड ) कहा जाता है। इसको इस तरह समझने की कोशिश करते हैं।

नक्षत्र का अंशात्मक मान १३ अंश २० कला=८०० कला
मान लीजिये कि हमें सूर्य का उप नक्षत्र मान निकालना है तो
१२० वर्ष=१३ अंश २० कला=८०० कला
तो ६ वर्ष (सूर्य) ८०० * ६/१२०=४० कला।
इस प्रकार प्रत्येक ग्रह के उप नक्षत्र के अंशात्मक मान इस प्रकार होंगे
ग्रह महादशा वर्ष उप नक्षत्र का अंशात्मक मान

अंश —- कला — विकला
केतु ७ ०० —- ४६ —- ४०
शुक्र २० ०२ —- १३ —– २०
सूर्य ०६ ०० — ४० —- ००
चन्द्र १० ०१ — ०६ —- ४०
मंगल ०७ ०० — ४६ — ४०
राहू १८ ०२ — ०० — ००
गुरु १६ ०१ — ४६ — ४०
शनि १९ ०२ — ०६ — ४०
बुध १७ ०१ — ५३ — २०
——————————————
योग १२० —- १३ — २० — ००

इस तरह २७ नक्षत्रों के २४३ भाग हुए, लेकिन जब इन भागों को राशि चक्र में रखा तो १/५/९ राशियों में राशियों के ३० अंश पूरे होने के कारण सूर्य नक्षत्र के राहू उप- नक्षत्र के दो भाग किये गए और शेष भाग २-५-८ राशियों में रख दिया। इसी प्रकार ३-७-११ राशियों में गुरु नक्षत्र के, चन्द्र उप नक्षत्र के भी २-२ भाग किये और ३-७-११ राशियों के ३० अंश पूरे होने के कारण चन्द्र उप नक्षत्र के शेष भाग को ४-८ -१२ राशियों में समायोजित कर दिया। अब राशि चक्र में उप नक्षत्रों का विभाजन २४३ से बढ़कर २४९ हो गया।  यह २४९ अंकों की राशि विभाजन की सारणी कृष्णमूर्ति पद्वति में फलित कथन में विशेष रूप से उपयोगी और महत्वपूर्ण है। यही इसका आधार भी है। बिना उप स्वामी के किसी घटना के पिन प्वाइंट घटित होने के बारे में जाना भी नहीं जा सकता।

किसी भी घटना को जानने के लिए इस पद्वति में एक ही नियम है और वह यह कि घटना से संबंधित प्रमुख भाव का उप नक्षत्र स्वामी यदि प्र्रमुख भाव या घटना के लिए सहायक भाव का कारक बन जाये तो अपेक्षित घटना होगी। घटना के समय निर्धारण के लिए विंशोत्तरी महादशा को ही देखा जाता है। आशय यह है कि केपी ने अपनी पद्वति के आधार में महर्षि पाराशर को कहीं भी अनदेखा नहीं किया है।

घटना होने के लिए दशा नाथ, अंतर दशा नाथ का घटना से संबंधित भावों का कारक होना जरूरी होता है। यदि ऐसा नहीं है तो घटना नहीं होगी। इस पद्वति में फलादेश करते समय घटना के मुख्य, सहयोगी और विरोधी भाव देख लेने चाहिए।किसी भी घटना के आकलन के लिए मुख्य भाव एवं सहयोगी भावो के नक्षत्र तथा राशिगत संबंधों को मिलाकर फल कथन करना चाहिए। जैसे विवाह के माध्यम से हम जीवन साथी प्राप्त करते हैं, जो शारीरिक सुख भी देता है। इस सुख को समाज एवं कानून की स्वीकृति होती है। अतः सप्तम स्थान विवाह व दांपत्य जीवन का मुख्य भाव है। विवाह के बाद हमारे परिवार में वृद्धि होती है, अतः दूसरा भाव (परिवार) विवाह घटना का सहायक भाव हुआ। विवाह के बाद हमारी एक सुख-दुख में जीवन साथी पाने की इच्छा पूरी होती है, अतः लाभ स्थान (मित्र, एवं इच्छापूर्ति) विवाह के लिए दूसरा सहायक भाव हुआ। इसलिए विवाह के मामले में ७-२-११ भावों को जरूर देखना चाहिए। इसके विरोधी भाव हैं १,६,१०, लिहाजा इनका आकलन भी कर लें।

कहने का आशय यह है कि इस पद्वति में जीवन की प्रत्येक घटना जानने के निश्चित नियम हैं। इसमें ऐसा नहीं है कि वैदिक ज्योतिष की भांति एक सूत्र दूसरे सूत्र को काट रहा हो। मान सागरी में किसी भाव के लिए जो लिखा है, पाराशर या जैमिनी में कुछ और। लिहाजा यहां ज्योतिषी को गणना करते समय किसी दुविधा या संशय की स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता।

किसी भी घटना से प्राप्त सुख या अनुकूलता के संकेत जन्मकुंडली के अष्टम एवं व्यय भाव से सूचित होते हैं, क्योंकि अष्टम एवं व्यय भाव दुःख व् निराशा, विवशता और हताशा के सूचक हैं। अतः किसी भी घटना के मुख्य एवं सहायक भाव से १२ वां या व्यय भाव घटना के फल में कमी कर देते हैं।
विवाह के मामले में ही विचार करें तो ६-१-१० भाव प्रतिकूलता या निराशा देते हैं क्योंकि ये भाव ७-२-११ वें भावों से बारहवें भाव हैं। जब किसी भाव का उप नक्षत्र स्वामी घटना से संबंधित मुख्य एवं सहायक भावों का कारक हो और साथ ही यह उप नक्षत्र स्वामी कुंडली के ८ या १२ वें भाव का भी कारक बन जाये या घटना से संबंधित भाव के व्यय स्थान का कारक बन जाये तो घटना होने के बाद जातक को अपेक्षित या संभावित सुख नहीं मिल सकता। इसलिए यदि जातक के सप्तम भाव का उप नक्षत्र स्वामी २, ७ या ११ में से किसी एक का कारक होगा तो विवाह तो होगा, लेकिन सप्तम का उप नक्षत्र स्वामी १ ,६ ,८, १० या १२ में से किसी एक भी भाव का कारक हुआ तो अपेक्षित सुख नहीं मिल सकेगा।

इसी प्रकार पंचम भाव का उप नक्षत्र स्वामी २, ५ या ११ वें भाव का कारक हो तो संतान होगी। इन भावों के साथ पंचम का उप नक्षत्र स्वामी १, ( २ का बारहवां), ४ (५ वें का बारहवां), १० (११ वें का बारहवां), ८ (निराशा) या १२ ( १ का बारहवां) में से किसी एक का कारक हुआ तो संतान सुख में न्यूनता, गर्भपात, मृत बालक का जन्म, बच्चों से दुरी आदि कोई न कोई घटना तो होगी ही। अतः जीवन की किसी घटना के मुख्य/सहायक भावों के साथ प्रतिकूल भावों को इस तालिका से समझ लेना आवश्यक है।

घटना प्रमुख एवं सहायक भाव      प्रतिकूल भाव

विवाह             ७-२-११             ६-१-१०-१२-८
सन्तति             ५-२-११             ४-१-१०-८-१२
शिक्षा               ४-९-११             ३-५-८-१२
छात्रवृत्ति          ६-९-११              ५-८-१२
वाहन खरीदना  ४-११                  १२-३-८
घर खरीदना      ४-११                  १२-३-८
घर बेचना         १०-५-६               ४-८-११-१२
ऋण लेना          ६-११                  ५-१२
ऋण मुक्ति         १२-८                 ६-११
विदेश यात्रा       १२-३-९             २-४-११
नौकरी               ६-१०-२-११      १-५-९-१२-८
स्थानांतरण        १०-३-१२          ४-८
पदोन्नति            १०-६-२-११      ९-५-८-१२

कृष्णमूर्ति जी ने अपने ही अयनांश का प्रयोग किया है, यह लहरी या चित्रपक्ष अयनांश से छह मिनट कम है। इसे केपी अयनांश कहा जाता है।
इसमें समान भाव विभाजन या श्रीपति पद्वति के स्थान पर भाव गणना की जाती है। प्रत्येक ग्रह अपने नक्षत्र स्वामी का फल देता है तथा फल की शुभता या अशुभता का निर्णय ग्रह का उप नक्षत्र स्वामी करता है। भाव कारक ग्रहों के चयन के नियम इस तरह हैं।

१-भावस्थ ग्रह के नक्षत्र में स्थित ग्रह।
२-भावस्थ ग्रह।
३-भावेश के नक्षत्र में स्थित ग्रह।
४-भावेश।
५-भाव पर दृष्टि डालने वाले ग्रह।
६-उपरोक्त ग्रहों को देखने वाले ग्रह।

राहु और केतु छाया ग्रह होने से ग्रहों का प्रतिनिधित्व कुछ इस तरह करते हैं। हमारे यहां राहु-केतु को एजेंट माना जाता है और यह यदि शामिल हैं तो ज्यादा प्रभावी हो जाते हैं। जैसे-

१-राहु और केतु की युति में स्थित ग्रह।
२-राहु और केतु पर दृष्टि डालने वाले ग्रह।
३ – राहु और केतु जिस राशि में हों, उनके स्वमी ग्रह और जिस नक्षत्र में हों, उनके नक्षत्र स्वामी के ग्रह।

इस पद्वति में केवल विंशोत्तरी दशा का ही प्रयोग होता है। गोचर में सभी ग्रहों के गोचर का अध्ययन उनके नक्षत्र स्वामी और उप नक्षत्र स्वामी की स्थिति के अनुसार लग्न से किया जाता है, न कि वैदिक की तरह चंद्र राशि से। इस पद्वति में साढ़े साती, अष्टक वर्ग, गुरु बल, अष्टम चन्द्र आदि का कोई महत्व नहीं है। योगों में केवल पुनरफू योग ही देखा जाता है इस पद्वति में नवांश, होरा, त्रिशांश आदि का प्रयोग भी नहीं है।

इसमें केवल दो तरीके हैं। एक होररी और दूसरे शासक ग्रह। किसी भी घटना से संबंधित फलादेश के लिए जातक से १ से लेकर २४९ के बीच का कोई नंबर लेते हैं और फिर उसकी कुंडली बनाते हैं। जन्म कुंडली या प्रश्न कुंडली के कारक ग्रहों के अनुसार मुहूर्त भी निकल जाता है।



(यह इनपुट ज्योतिषचार्य पंडित भवानी  वैदिक द्वारा उपलब्ध कराया गया है)

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