कुरीतियों का नाश केवल कानून से नहीं



मुस्लिम समाज के लिए सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वूपर्ण फैसला आने से अनेक ऐसी बातें ध्यान में आती हैं जिनके समाधान के लिए संविधान में निर्देश रखे गए, कानून बनाए गये और यह समझ लिया गया कि अब इन समस्याओं का निपटारा हो गया है। तीन तलाक का भी एक ऐसा ही विषय था जो हमारी मुस्लिम बिरादरी के लिए एक ऐसे नासूर की तरह था जिसने शादीशुदा महिलाओ को उनके पतियो के रहमोकरम पर छोड़ दिया था कि न जाने कब उन्हें तीन बार तलाक कहकर पति के घर और उसकी जि़न्दगी से निकलने के लिए कह दिया जाए। इस फैसले से पीडि़त और भय के वातावरण में रह रही स्त्रियों को बहुत राहत मिली है, इसमें कोई दो राय नहीं है। अब इंतजार केवल है वक्त का कि किस तरह उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन किया जाता है। 


भारत में जितने भी धार्मिक समाज है उनमें ऐसे महापुरूष हुए हैं, जिन्होंने अपनी कथनी और करनी से इस तरह की व्यवस्थाएं बनाई ताकि विभिन्न धर्मों के पालन करने वाले एक सच्चे इंसान की तरह जि़न्दगी बसर कर सकें। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध या जितने भी मत मतान्तर हैं उनके ग्रन्थों में वे सभी बाते हैं, पद्धतियां हैं, विधियां है और यहां तक कि निर्देश और आदेश भी हैं जिनका पालन करना उस धर्म के मामने वालों के लिए अनिवार्य है और यदि उसमें कोई कोताही की गयी तो उसके लिए दण्ड भी है जो भुगतना ही पड़ता है। मुस्लिम समाज में फतवा, सिख समाज में कार सेवा, हिन्दू समाज में सामाजिक बहिष्कार इसके उदाहरण है। इस तरह की व्यवस्था के बारे में विपरीत मतों को माने वालों के अपने अलग विचार हो सकते हैं और कई बार विचार की यह विभिन्नता ही दो धर्मों के बीच संघर्ष का कारण बन जाती है । धार्मिक वैमनस्य के रूप में उसका परिणाम हमारे सामने आता है। 

मान्यताओं में बिखराव

दूर क्यों जाएं, भारत विभाजन के समय जो लोग भाई भाई की तरह रहते थे, वे अचानक एक दूसरे की जान लेने पर उतारू हो गये। इसी तरह 1984 के दंगों में सिखों के साथ अत्याचार ज्यादातर ऐसे लोगों द्वारा किये गये जो कुछ धड़ी पहले तक एक दूसरे के खैरख्वाह हुआ करते थे, दिन हो या रात एक दूसरे की मुसीबत के समय मदद करते थे और यहां तक कि आपस में रोटी बेटी का संबंध भी था। इसके बावजूद दोनों के बीच जबरदस्त मार काट हुई जिसमें ऐसे उदाहरण बहुत कम थे जिनमें इन्सानियत के दर्शन हुए हों, वरना तो हैवानियत का ऐसा नंगा नाच हुआ था कि उसका दंश पीढ़ी दर पीढ़ी होते हुए आज तक हमें सालता रहता है। पल में तोला पल में माशा हो जाना इसी को कहते हैं। सभी बंधन आस्थाओं की भेंट चढ़ा दिये गये। 
यह तो हुई धर्म और धार्मिकता के नाम पर कट्टरपन की हद तक पहुंच गए हमारे विचार और कर्म जिनका असर हमारे सामने हर रोज अखबारों तथा अन्य मीडिया के ज़रिए दिखाई देता रहता है।
अब हम एक दूसरी बात पर आते हैं और वह यह कि क्या धर्म और धार्मिक मान्यताओं के आधार पर समाज में फैली कुरीतियों को केवल कानून बनाकर समाप्त किया जा सकता है?
सबसे पहले हम छूआछूत यानी अस्पृशयता या अनटचेबिलिटी की बात करते हैं। शताब्दियों से यह समस्या है जिसे समाप्त करने के लिए दशकों नहीं सदियों से कोशिशें की जा रही हैं, कानून भी बनाए गये हैं, संविधान में भी व्यवस्था की गयी है लेकिन क्या यह कहा जा सकता है कि जडमूल से इसका सफाया हो गया है? कदापि नहीं; क्योंकि आज भी हमारे समाज में चाहे वह ग्रामीण हो या शहरी, यह बुराई विद्यमान है। लोग छुआछूत मानते हैं। उसका केवल स्वरूप बदल देते हैं। 
जहां तक कानून द्वारा इस बुराई रूपी नाग का फ़न साधने की बात है तो कड़ी सज़ा का प्रावधान कर दिया गया लेकिन इसी के साथ साथ इस बुराई को मखमल में लपेट कर नये ढंग से इसकी जड़ों को मजबूत भी बना दिया।
इसे विस्तार से समझने के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था सीमित समय तक लागू करने के प्रावधान को अनिश्चित काल तक बरकरार रखने की नीति समझने की जरूरत है। जरा ध्यान दीजिए कि छुआछूत का शिकार कौन होते थे ; निम्न जाति के लोग जो अनुसूचित, पिछड़े वर्ग, ओबीसी के नाम से एक तरह से मुख्यधारा से अलग कर दिये गये, इन्हें विशेष सुविधाएं दिये जाने का बन्दोबस्त कर दिया ताकि ये कुछ समय बाद गरीबी और छुआछूत के दलदल से बाहर निकल सकें। जब तक यह समझाया जाता रहा कि यह आरक्षण कुछ समय बाद समाप्त हो जाएगा, तब तक तो ठीक था लेकिन इसके अनन्त काल तक लागू करने से उस समाज का रवैया इस वर्ग के प्रति छुआछूत से भी आगे निकल गया। उंची जाति का होने पर जिस समाज के साथ शिक्षा और नौकरी में भेदभाव हुआ वह उनके विरोध में खड़ी हो गयीं जिन्हें निम्न जाति का होने पर सभी तरह की सुविधाएं दी जा रही थीं। यह विरोध छुआछूत का ही दूसरा रूप है। आज आरक्षण प्राप्त वर्ग और जिनके लिए कोई आरक्षण नहीं है वह एक दूसरे के लिए अस्पृश्य की ही भांति हैं, दोनों ही एक दूसरे को नहीं सुहाते, चाहे कानून के डर से अपना मुंह खोलने की हिम्मत न कर पाते हों लेकिन समाज में भेदभाव का बीज तो रोप ही दिया गया जो अब वट्वृक्ष बनने की तैयारी कर रहा है। ये दोनों वर्ग गाहे बगाहेे एक दूसरे के साथ संघर्ष करने की स्थिति में आते ही रहते हैं।
कानून की असफलता
अब दूसरी बुराईयों की भी बात कर लें। उदाहरण के लिए दहेज लेने और देने पर कानूनन रोक है लेकिन हिन्दू, मुुस्लिम, सिख, जैन किस समाज में दहेज का लेन देन नहीं होता और इसके कारण महिलाओं का उत्पीड़न और उनके साथ अनाचार से लेकर अत्याचार तक नहीं होता। इसका कारण यह है कि समर्थ लोगों ने कानून को झक मारने के लिए छोड़ दिया और दबा के शादी ब्याह पर लाखों करोड़ो रूपये खर्च किए। इनमें सबसे अधिक वही लोग हैं जो कानून बनाते हैं और जिन पर कानून पर अमल कराने की जिम्मेदारी भी है। दहेज विरोधी कानून केवल एक उपहास बनकर रह गया है।
इसी तरह आप बाल विवाह को ले लीजिए। क्या यह आंख मूंदकर कहा जा सकता है कि हमने बाल विवाह को रोकने में कामयाबी पा ली है। गांव देहात से लेकर शहरों तक में कानून की नाक के नीचे छोटी उम्र में शादियां होती हैं, खानापूरी करने, दिखावे के लिए कार्रवाई हो जाती है लेकिन यह कुप्रथा समाप्त होने का नाम नहीं ले रही ।
अब गर्भ में यदि कन्या है तो भू्रण हत्या के लिए कितनी रोकथाम है लेकिन फिर भी यह समाज में गहरे स्तर तक व्याप्त है क्योंकि परिवार में यदि पुत्र न हो तो वारिस नहीं मिलता, वृद्धावस्था में देखभाल के नाम पर पुत्र जन्म की जरूरत समझाई जाती है और बेटी को पराया धन, चार दिन की मेहमान तथा उसके ससुराल जाने को ही अन्तिम लक्ष्य मान लिया जाता है।
कानून यहां भी सख्त होने के बावजूद लाचार है और आज भी बेटियों को या तो गर्भ में ही या जन्म लेने के बाद मारने के कुकृत्य होते हैं
दोहरापन
वास्तविकता यह है कि हम चाहे कितने भी कानून बना लें, उन्हें लागू करने के कितने और कैसे भी इंतजाम कर लें लेकिन इन बुराईयों या कुरीतियों को जड़मूल से उखाड़ कर फेंकने में असफलता ही हाथ लगी है। यह इसलिए हैं क्योंकि हमारी सरकारें हों या सामाजिक व्यवस्था दुहमंुही बातें ज्यादा होती हैं मतलब यह कि कथनी और करनी के बीच भारी अन्तर होता है। दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं होता।
हमारे नेता और समाज यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि इन धार्मिक और सामाजिक बुराईयों को तब तक नहीं रोका जा सकता जब तक कि हमारे देश में शिक्षा प्रणाली को चाक चौबन्द नहीं कर दिया जाता। पढ़ाई लिखाई से ही इन बुराईयों की तरफ ध्यान जाने से बचा जा सकता है। अब हमारे देश में शिक्षा की जो हालत है, उससे कौन वाफिक नहीं है। 
शिक्षा के साथ यदि थोड़ा सा स्वास्थ्य की तरफ ध्यान चला जाए, शुद्ध खाने पीने की चीजों की व्यवस्था हो जाए तो भी इन बुराईयों के आकर्षण से बचा जा सकता है।
अंत में केवल इतना ही कि यदि केवल कानून, आन्दोलनों और तुष्टिकरण से ही धार्मिक और सामाजिक विकृतियों का समाधान हो जाता तो हम प्रत्येक क्षेत्र में दुनिया के सिरमौर होते जबकि हकीकत यह है कि हम पिछडे़पन के कलंक को साथ लेकर चलने को मजबूर हैं। शायद गुणीजन कोई सार्थक उपाय निकाल सकें? -लेखक पूरन चंद सरीन [no-sidebar]

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