‘पहला सुख निरोगी काया‘


कहा गया है ‘पहला सुख निरोगी काया‘ लेकिन आज यह सुख प्रदान करने के लिए जिम्मेदार चिकित्सक वर्ग का स्वरूप दिन प्रतिदिन बदलता हुआ देखने को मिल रहा है। पहले ज्यादातर यह वर्ग वैद्य, हकीम द्वारा मर्ज पहचानकर दवा देने, अक्तार द्वारा विशेष रसायन बनाने और ज़र्राह द्वारा चीर-फाड़, सर्जरी करने के लिए जाना जाता था। आज डाक्टर, लैब, कैमिस्ट और सर्जन के रूप में ‘स्वस्थ भारत‘- का संकल्प पूरा करने के लिए उसे जिम्मेदार माना जाता है। जीवन रक्षक और ईश्वर का दूत भी समझा जाता है लेकिन विडम्बना यह है कि इस वर्ग के कुछ लोग भक्षक और दानव बनकर इस नोबल प्रोफेशन की गरिमा को धूल घूसरित करने में कोई कसर भी नहीं छोड़ रहे हैं। इसके प्रमाण में रोज़ाना घट रही ऐसी घटनाएं सामने है जिनसे कुछ डाक्टरों की लापरवाही, मिली भगत और मरीज की जेबतराशी की आपराधिक साजिश उजागर होती है।
इस कारण जहां एक ओर हमारे डाक्टर और सर्जन देश विदेश में अपनी काबलीयत का लोहा मनवा रहे हैं वहां दूसरी ओर ये मुट्ठीभर लोग धन और बल से पूरे व्यवसाय पर कालिख पोतने का काम कर रहे हैं। इनका सिलसिलेवार वर्णन और इस मानवघाती दुष्कर्म को रोकने के लिए किय गये उपायों की समीक्षा करनी जरूरी है।
डाक्टरी अनाचार
हाल ही में आई एक फिल्म के एक सीन के ज़रिए इसे समझते हैं। अक्षय कुमार द्वारा अभिनीत फिल्म ‘गब्बर इज़ बैक‘ में नायक एक मृत व्यक्ति को लेकर एक प्रायवेट क्लीनिक ले जाता है जहां डाक्टर उसे सीधे आपरेशन थियेटर ले जाते हैं। और जब पता चलता है कि यह तो मर चुका है तो सीनियर डाक्टर अपनी टीम को चुप रहने के लिए कहकर बाहर हमारे नायक को बताता है कि मरीज बहत सीरियस है और उसके इलाज में लाखों का खर्च गिना देता है। अब हमारा नायक मुस्कराते हुए सरकारी अस्पताल का मृत्यु प्रमाणपत्र सामने रखकर दर्शकों को इस पूरे मायाजाल को समझाने की कोशिश करता है।
आज यही रील लाईफ हमारी रीयल लाईफ की हकीकत बनती जा रही है। बात यही खत्म नहीं होती। अस्पतालों से लाश तक को केवल तब ही ले जाने दिया जाता है जब तक कि उसके ईलाज की पाई पाई तक मृतक के घरवालों से वसूल न कर ली जाए।
जगजाहिर है कि सरकारी अस्पतालों में जो भीडभाड़ रहती है उसकी वजह से केन्द्रीय और राज्य सरकारों द्वारा भरसक प्रयत्न किये जाने के बावजूद मरीज की जान हमेशा साँसत में फंसी रहती है कि न जाने कब सही ईलाज और दवाई न मिलने से उसकी सांसों की डोर टूट जाए। सरकारें नयी नयी योजनाओं से मरीजों को राहत पहुुंचाने की घोषणा करती रहती हैं। गुजरात सरकार की ‘चिरंजीवी‘, मध्यप्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडू और हाल ही में दिल्ली सरकार द्वारा शुरू की गई योजनाएं इसके उदाहरण हैं।
मिलीभगत
इस सब के बावजूद स्वास्थ्य सेवाओं की कमी हमेशा मुहँबाए खड़ी रहती है और बीमार व्यक्ति प्रायवेट प्रैक्टिस कर रहे डाक्टरों तथा अस्पतालों का रूख करता ही है। यहां भी कुछ डाक्टर और संस्थान मरीज को ठीक करने, वाजिब फीस देकर उसे बीमारी से मुक्ति दिलाते हैं लेकिन इधर एक नया टेªन्ड तेजी से बढ़ रहा है जिसमें डाक्टरों, लैबोरेटरी चलाने वालों और दवा का कारोबार करने वाले कैमिस्टों की मिलीभगत सामने आती है। दुर्भाग्य से यह वर्ग दिन दूनी राज चौगुनी गति से बढ़ रहा है।
आज प्रायवेट डाक्टरों को केवल एक बार दिखाने की फीस पांच सौ से शुरू होकर पांच हजार से भी ज्यादा ली जाती है और अगर अस्पताल में एडमिट करा दिया तो फिर जो खर्चों की लिस्ट सामने रखी जाती है उससे लगता है कि अस्पताल या नर्सिंग होम में मरीज और उसके रिश्तेदार को वहां सांस लेने तक का खर्चा देना पडे़गा।
इसके बाद शुरू होता है टेस्ट कराने का अंतहीन सिलसिला। एक के बाद एक मंहगे टेस्ट, एक्स रे, एम आर आई और न जाने किन किन नई मशीनों के नीचे से मरीज को गुजारने के बाद जब ज्यादातर मामलों में आमतौर से कोई गंभीर बीमारी के लक्षण नहीं मिलते तो डाक्टर साहब फरमाते हैं कि ‘आप बहुत लकी हैं कि आपको कोई बीमारी नहीं है, बस थोड़ी बहुत जो तबीयत खराब रहती है उसके लिए यह दवाई ले लीजिए, काफी है।‘ मरीज और उसके घरवाले सोचते हैं, ‘चलो कुछ नहीं निकला, अगर निकल आता तो....‘ यही ‘तो‘ उसे कजऱ् के बोझ से दबाकर कंगाल तक बनाने का काम कर जाता है।
मेरी एक फिल्म की कलाकार एक लैबोरेटरी में पीआरओ की नौकरी भी करती है। एक दिन बातों बातों में उसने बताया कि उसकी डयूटी प्रायवेट प्रैक्टिस कर रहे डाक्टरों को हर हफ्ते रकम से भरे लिफाफे सुरक्षित पहुंचाने और अपनी लैब को ज्यादा से ज्यादा बिजनैस लाकर देने की है।
पहले होता यह था कि डाक्टर अपनी कमीशन लैब से तय कर मरीज पहुंचाता रहता था। इससे लैब का प्राफिट मार्जिन कम हो जाता था। जब उसने डाक्टर से कहा कि उसे कुछ नहीं बच रहा तो डाक्टर ने कहा कि वह कुछ नहीं कर सकता, उसे तो कमीशन चाहिए वरना बिजनेस बंद। उसके बाद ये दोनों मिल गये और इन्होंने मिलकर मरीजों को हर तरह से लूटने का अलिखित समझौता कर लिया।
अब हम मेडीकल बीमे के गोरखधंधे को समझते हैं। जब मरीज प्रायवेट अस्पताल और उससे जुडे़ डाक्टर से ईलाज कराने जाता है और दाखिल किये जाने की नौबत आती है तो सबसे पहले पूछा जाता है कि ‘क्या आपका कोई पैनल है‘। यह पैनल मरीज जहां काम करता है उस कम्पनी द्वारा मेडीकल फैसीलिटी के लिए अस्पताल से हुए उसके एग्रीमेंट का होता है। अगर मरीज ऐसी कम्पनी में काम नहीं करता तो फिर मेडीकल इंश्योरेंस होने की बात पूछी जाती है। इलाज और एडमिट होने के खर्चे की सीमा इन बातों पर मरीज के ‘हां‘ या ‘न‘ कहने पर निर्भर करती है। इसका अर्थ यह है कि अगर ‘हां‘ है तो ‘कैशलेस‘ या ‘भुगतान‘ करने पर बाद में ‘रिईम्बर्समेंट‘ के आधार पर इलाज शुरू हो जाता है। अगर ‘न‘ कहा हे तो फिर सारा खर्चा मरीज को स्वंय ही उठाना होगा।
अब इन दोनों खर्चों की सीमा भी अलग अलग होती है। अगर मेडीकल इंश्योरेंस हो तो बिल ज्यादा बनेगा जो बीमा कम्पनी को भुगतान करना होगा। अगर मरीज को ही भुगतान करना है तो फिर कुछ मोलभाव, उपर नीचे करके बिल में कमी करवाई जा सकती है। एक उदाहरण है। बीमाधारित व्यक्ति के लिए एनजियोग्राफी कराने की कीमत 18 हजार के आसपास और जिसका बीमा नहीं है उससे 13 हजार तक लिया जा सकता है। इसी तरह दूसरे इलाज होते हैं और रकम में यह जो अंतर है वह बीमा कम्पनियां बीमें की किस्त के रूप में अन्ततः मरीज से ही किसी न किसी तरह वसूल कर ही लेती है।
देखा जाए तो आज मेडीकल प्रोफेशन का एक बहुत बड़ा वर्ग बीमारी के नाम पर डरा धमकामकर या प्यार पुचकार से अनैतिकता की सभी हदें पार करते हुए, गैर कानूनी काम कर कानून की आंखों में धूल झोंकने और उसकी खमियों का फायदा उठाते हुए ‘स्वस्थ भारत‘ के संकल्प पर पलीता लगाने का काम कर रहा है।
आज जहां एक ओर औसत आयु को 70 वर्ष होता हुआ देखना चाहते है, गांव देहात, कस्बों में स्वास्थ्य केन्द्रों का नाम बदलकर हेल्थ तथा वेलनेस सेन्टर स्थापित करने की योजनाएं बनाने की धोषणाएं सुनते है और देश के प्रत्येक नागरिक तक चिकित्सा विज्ञान की आधुनिक उपलब्धियों को पहुंचाना चाहते है, अन्य विकसित देशों की तरह अवाम को हृष्ट पुष्ट होते हुए देखना चाहते है वहां हकीकत यह है कि देश में डाक्टरों की कमी लाखों नहीं करोड़ो की संख्या में हैं, पैरा मेडीकल स्टाफ, की तो इतनी कमी है कि अस्पतालों में ही पूरा नहीं पड़ता, एम्बूलेंस सुविधाओं का जरूरत के सामने बहुत मामूली होना, दवाईयों के मंहगें होते जाने और उनके मुकाबले जेनरिक दवाओं के आसानी से उपलब्ध न होने की विकट समस्या से कोई इंकार नहीं कर सकता।
विकल्प क्या है?
अब जो हकीकत है तो उसकी सूरत बदलने के लिए ठोस उपाय भी करने जरूरी हैं। सबसे पहले हमारे आपराधिक कानूनों पर सख्ती से अमल और उनमें सजा के प्रावधानों को बदलने के लिए कदम उठाने होंगे। स्वास्थ्य से खिलवाड़ मतलब जीवन को संकट में डालने के अपराध की सज़ा आजीवन कारावास से लेकर मृत्युदंड तक कर दिये जाने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। केवल इस दण्ड के भयमात्र से चिकित्सा व्यवसाय के क्षेत्र में हो रहे अनैतिक व्यापार में जबरदस्त बदलाव दीख सकता है।
उपभोक्ता संरक्षण कानून में मेडीकल नेगलीजेन्सी यानि चिकित्सा में बरती गई लापरवाही के मामलों पर 6 महीनों में अन्तिम निर्णय करने की व्यवस्था की जाए और दोषी व्यक्ति को दण्ड तथा पीडि़त को मुआवजा मिलने में जानबूझकर की गयी देरी का संज्ञान लेकर संबंधित पक्ष पर कड़ी कार्रवाई का प्रावधान हो।
इसके साथ ही सूचना, शिक्षा, खाद्य सुरक्षा के अधिकारों की तरह स्वास्थ्य रक्षा को भी संवैधिक अधिकार बनाने की प्रक्रिया शुरू की जाए और इसके लिए संविधान में संशोधन भी करना पड़े तो उसके लिए जनमत तैयार करने के लिए सत्ताधारी तथा विपक्ष दोनों ही अपनी भूमिका  का निर्वाह करें।
हालांकि यह सब वर्तमान परिस्थितियों में काल्पनिक लगता है लेकिन जिस रफ्तार और दृढ संकल्प के संकेत केन्द्रीय सरकार से मिल रहे हैं उनसे इस कल्पना को साकार होने की किरण दिखाई पड़नी स्वाभाविक है।

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