रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, काला धन और बेनामी सम्पत्ति एक दूसरे के पर्यायवाची


रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, काला धन और बेनामी सम्पत्ति एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द लगते हैं और सामान्य व्यक्ति के लिए उनके अलग या एक साथ होने से भ्रम होता है कि जब बात एक ही है तो इतने नाम किसलिए हैं ? असल में यह सब एक ही सिक्के के कई पहलू या एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं।
इसे समझने के लिए पिछले दिनों की घटना एक बेहतरीन उदाहरण है।
राजनेता लालू प्रसाद यादव के परिवार पर आयकर अधिकारियों द्वारा डाले गए छापे और उनकी सम्पत्ति को जब्त कर लेने की कार्रवाई हुई हालांकि उनका राजनीतिक कद हमेशा से ईर्ष्या का विषय रहा है और आरोपों को सिद्ध करने के प्रयासों के बीच रोड़ा भी बनता रहा है। जब वे केन्द्र में रेलमंत्री थे या बिहार के मुख्यमंत्री और एक आश्चर्यजनक घटनाक्रम में मुख्यमंत्री बनी उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने अपने अपने कार्यकाल में काफी ऐसा धन अर्जित किया जिसके बारे में कोई स्त्रोत बता पाना कठिन था। लेकिन कमाई तो उन्होंने की और उसे कानूनों की खामियों का फायदा उठाते हुए वैध धन में भी बदल दिया। वे स्वंय अपने नाम यह सारा धन दिखा नहीं सकते थे तो उन्होंने अपने बेटे बेटियों से लेकर दामाद तक के नाम का इस्तेमाल इस तरह से किया कि कानूनन सब कुछ ठीक लगे और उनकी बिना किसी प्रकट स्त्रोत की कमाई का परिवार में ही बंटवारा हो जाए।
यह धन ऐसी सम्पत्ति अर्जित करने में लगा जिसका मालिकाना हक किसी ऐसे व्यक्ति के जरिए उनके पास आया जिसकी आय का कोई स्त्रोत नहीं था। उस व्यक्ति को यह तक पता नहीं था कि वह इतनी भारी सम्पत्ति का मालिक रहा है और जिसे वह किसी अन्य को उपहार स्वरूप भेंट कर रहा है। गिफ्ट टैक्स कानून का फायदा उठाने का यह बढि़या उदाहरण था। दो चार नहीं सैंकड़ों करोड़ की सम्पत्ति इस परिवार के सदस्यों के नाम उजागर हुई है जिसके अर्जित करने का स्त्रोत कानून की आंख में धूल झोंकने की तरह सामने आया है। इस तरह का यह अकेला उदाहरण नहीं है। भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के फर्शों पर लगी एक भी ईंट उखाड़ने पर इस तरह के हजारों मामले सामने आ सकते हैं।
कानून की कड़ाई

पिछले दिनों वर्तमान केन्द्रीय सरकार द्वारा बेनामी सम्पत्ति कानून में रखे गये कड़े प्रावधानों का ही परिणाम है कि बेनामी सम्पत्ति रखने का आरोप लालू परिवार पर पुख्ता तौर पर साबित हो रहा है। इसका परिणाम सजा के रूप में निकलता है या बरी हो जाने के रूप में निकलेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि अदालती कार्रवाई में सबूत किस तरह पेश किये जाते हैं। अभी तक तो अक्सर इन भ्रष्टाचार के मामलों के बहुत लम्बा खिंचने और अंत मंे पुख्ता सबूत न होने के बहाने की आड़ में या राजनीतिक सत्ता परिवर्तन होने का सीधा प्रभाव इन मुकदमों के फैसलों पर पड़ता रहा है। भविष्य में क्या होगा यह वर्तमान कानूनी प्रक्रियाओं के पालन पर निर्भर करता है।
रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार से अर्जित धन और टैक्स की चोरी कर बचाया धन कालेधन की श्रेणी में आकर बेनामी सम्पत्ति खरीदने में किस तरह लगता है, यह इस एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है।
असल में हमारे देश में आजादी के बाद टैक्स की जो प्रणाली निश्चित की गयी उसके दूरगामी परिणाम के रूप में ही अधोषित अर्थात बेनामी सम्पत्ति का ज़खीरा तमाम औद्योगिक घरानों, व्यवसाईयों से लेकर भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के पास बेहिसाब दौलत जमा होने के रूप में सामने आ रहा है।
यद्यपि आज हालात काफी बदले हैं लेकिन अभी भी ऐसा माहौल नहीं बन पाया है जिससे कोई व्यक्ति जितना कमाता है उतना ही कागजों में दिखा दे। आज भी जमीन जायदाद की कीमतों में थोड़ी बहुत गिरावट होने के बावजूद कोई भी लेन देन चैक और नकद दोनों में भुगतान के बिना पूरा नहीं होता। इसका कारण जहां एक ओर मनुष्य की लालच में पड़ने की प्रवृत्ति है वहां दूसरी ओर कुछ कानूनों का बहुत अधिक सख्त होना और कुछ का बहुत ढ़ीला होना है। कोई सक्षम आर्थिक विशेषज्ञ वित्त मंत्री ही इसे दुरूस्त कर सकता है।
लेखक : पूरन चंद सरीन

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