नस्लवाद और जातिवाद की सोच आज भी मजबूत


यह जो जून का महीना अभी अभी गुजरा है, अनेक मामलों में बहुत एतिहासिक रहा है। सन् 1857 में अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई का सूत्रपात, स्वतंत्र भारत में नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों को छीनने के लिए आपात्काल लगाने का काम जून में ही हुआ। इसी कड़ी में सन् 2017 के इस जून के महीने में ही एक ऐसी घटना घटी जिसे कुछ तथाकथित पढ़े लिखे, धनी मानी और सम्पन्न घरानों के लोग मामूली समझकर दर किनार भले ही कर दें लेकिन एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह मार्मिक चोट पहुंचने जैसी है।
यह घटना थी दिल्ली के गोल्फ क्लब में उत्तरपूर्व की महिला का उसकी पोशाक और शक्ल सूरत को लेकर उसे क्लब से बाहर चले जाने के लिए कहना। यह महिला जिनके साथ लंच करने आई थी वह और कोई नहीं, उसकी नियोक्ता थी जिनके यहां वह परिचारिका यानि गवर्नेस का काम करती थी और देश विदेश में उनके साथ ही रहती थीं।
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मामले के उजागर होने पर क्लब के संचालकों ने मुंह छिपाने की रस्मअदायगी के लिए माफी मांग ली हो या केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री रिजीजु द्वारा पुलिस कमिश्नर से मामले की तहकीकात करने के लिए कहा गया हो, टीवी चैनलों पर क्लब के पक्ष में बेबुनियाद दलीलें दी गयी हों और कुछ लोगों ने इसे महिला की अस्मिता से भी जोड़ दिया हो। फर्क इस बात से पड़ता हे कि आज भी हम उस सोच को बदलने में कामयाब नहीं हो पाए हैं जो अंग्रेजों ने हम पर राज करने के लिए बड़े ही कारगर तरीके से हमारे देश में लागू की थी।
इतिहास गवाह है
इसे समझने के लिए थोड़ा सा इतिहास की तरफ जाना जरूरी है। प्राचीन काल में कामकाज पर आधारित ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में वर्ण व्यवस्था की स्थापना की गयी। इसका सीधा सा अर्थ यह था कि जो पठन पाठन, शिक्षा, दीक्षा, पूजा पाठ करेगा वह ब्राहमण कहलाएगा, जो देश की रक्षा करेगा वह क्षत्रिय, जो व्यापार करेगा वह वैश्य और जो नौकरी, चाकरी करेगा शूद्र कहलाएगा। सभी वर्णों के अधिकार समान थे और कोई भी अपनी रूचि के अनुसार वर्ण अपना सकता था।
पहले मुगल और बाद में अंग्रेज आए तो उन्होंने सबसे पहला काम इस व्यवस्था को छिन्न भिन्न करने का किया क्योंकि वह हमें अपनी सैन्य ताकत या छल बल से पराजित तो कर सकते थे लेकिन हमारा विश्वास नहीं जीत सकते थे। इसके लिए उन्होंने यह किया कि दो नये वर्ग बना दिये। एक वर्ग था जिसे जमींदार, ताल्लुकेदार, पटेल, चौधरी, राजा, नबाब जैसी उपाधियों से उपकृत कर अपने पक्ष में कर लिया जो हमेशा उनका गुणगान करता रहे।। उन्होंने एक दूसरा वर्ग बनाया और वह था दलितों का जिसे वह सब कार्य सौंप दिये जिन्हें अंग्रेज नीचता के काम कहकर परिभाषित करते थे। अंग्रेजों ने इसके बाद एक काम यह किया कि इस दलित वर्ग को और सम्पन्न वर्ग को आपस में ही एक दूसरे से लड़ा दिया और दोनों शत्रु बन गए। सम्पन्न वर्ग को दलित वर्ग का उत्पीड़न करने और उन्हें दुत्कारने का अधिकार दे दिया। इसे दास प्रथा भी कह सकते है।
आजादी के बाद भी हमने इसी परम्परा को कायम रखते हुए जहां एक ओर जमींदारी प्रथा को समाप्त कर निम्न वर्ग की वाहवाही लूटी, वहां आरक्षण के नाम पर पूरे देश का विभाजन कर दिया और इस तरह देश को दो भागों में बंट गया ; एक सामान्य यानी जनरल केटेगरी और दूसरी आरक्षित अर्थात् रिर्ज़व केटेगरी। यह देश का दुर्भाग्य ही तो है कि जहां सभी नागरिकों के एक समान अधिकारों की बात होती है वहां जाति को लेकर शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय तक में एक दूसरे के साथ अमानवीयता की हद तक पक्षपात किया जाता है।
नस्ली सोच की पराकाष्ठा
यह जो गोल्फ क्लब की घटना हुई है, वह हमारे धनाढ्य, संपन्न और सभी प्रकार की सुख सुविधाओं वाले एक ऐसे वर्ग द्वारा अंजाम दी गयी जो अभी तक ब्रिटिशकालीन मानसिकता से बाहर नहीं आ पाया है और अपने आप को कुलीन और दूसरों को निकृष्ट समझता आया है। विडम्बना यह कि इस वर्ग ने अपनी सोच का निशाना उसे बनाया जिसे शासन, प्रशासन और समाज ने पहले से ही निम्न दर्जा देकर हेय या नफरत करने लायक घोषित किया हुआ है।
एक और उदाहरण से बात अधिक स्पष्ट हो जाएगी। ऊंच नीच, छोटे बड़े के जातिगत बोध से ग्रस्त मानसिकता वाले हमारे एक राजनीतिक दल के महत्वपूर्ण सदस्य मणिशंकर द्वारा नरेन्द्र मोदी के प्रचार अभियान का जबाब देने के लिए हिकारतभरी यह टिप्पणी की गई, ‘अगर मोदी चाय का स्टाल लगाना चाहें तो हम अपने पंडाल में उन्हंे जगह दे देगें।‘ उसके बाद उस दल का जो हाल हुआ, वह सब जानते हैं। इन्हीं सज्जन का उदाहरण यह भी है कि जिस तरह अंग्रेजो के समय कुछ भारतीयों द्वारा गद्दारी करने के लिए अपने ही देशवासियों के खिलाफ गवाही देने से लेकर दुश्मन की मदद करने तक के काम किये जाते थे, उसी परम्परा में इस व्यक्ति ने अपने जैसे ही कुछ और लोगों के साथ मिलकर कश्मीर में आतंकवाद फैला रहे लोगों के सामने गिडगिड़ाने तक की भूमिका अदा की ताकि नरेन्द्र मोदी को सता से बाहर किया जा सके।
बात यही समाप्त नहीं होती है। ये सभी राजनीतिक दल और उनके संचालक कभी अपनी विकृत मानसिकता से उपर उठ ही नहीं पाएं। इसका यह ताजा उदाहरण क्या कम है कि राष्ट्रपति पद के लिए सत्ताधारी दल और विपक्ष  ने जिन व्यक्तियों को उतारा है उनका परिचय उनके गुण दोष और योग्यता के आधार पर नहीं दे रहे हैं, बल्कि यह कहकर दे रहे हैं कि दोनों में से बड़ा दलित कौन है।
दुर्भाग्य यह है कि दोनों ही उम्मीदवार अपने को दलित के रूप में पेश किये जाने पर कोई एतराज नहीं कर रहे हैं। सत्तासीन होने की लोलुपता के सामने आत्म सम्मान और अपने व्यक्तित्व तक का हनन हो जाने से उन्हें कोई परहेज नहीं। असलीयत यह भी है कि दोनों ही उम्मीदवार अपनी गरीबी और अभावयुक्त जीवन से कभी का मुक्त हो चुके हैं और संपन्नता का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। एक उम्मीदवार राज्यपाल रहा है और दूसरा केन्द्रीय मंत्री और लोकसभाध्यक्ष रहा है। होना तो यह चाहिए था कि दोनों की वैचारिक योग्यता का परीक्षण होता जो राष्ट्रपति के आसन को शोभा दे, लेकिन ऐसा नहीं है।
छूआछूत, जातिगत विभाजन, नस्ली भेदभाव और बड़े छोटे की मानसिकता वाली सोच आज भी उतनी ही मजबूत है जितनी सदियों पहले थी। हमें अपने संविधान पर गर्व है लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता कि हमारे संविधान की कुछेक कमजोरियों का फायदा उठाकर, हो सकता है, जिनके बारे में उस समय संविधान बनाने वालों का ध्यान न गया हो, हमारे राजनीतिक धुरन्धर इस्तेमाल कर रहे हों। बिल्कुल ऐसा ही है! इस दृष्टि से देखा जाए तो अब समय आ गया है कि हम अपने संविधान की एक बार फिर से व्याख्या करें और जो छेद दिखाई दें, उन्हें बन्द करने से चूके नहीं। वर्तमान सरकार और उसके प्रधानमंत्री यह कर सकने में सक्षम हैं। एक जुलाई से लागू जीएसटी और उससे पहलेे नोटबंदी इसका ताजा उदाहण हैं। वे अगर चाहें तो पूरे संविधान को ही पुनः लिखवा सकते हैं ताकि कम से कम समान रूप से जीने के अधिकार की परिभाषा तो तय हो सके। उसमें अमीर-गरीब, संपन्न-दलित, आरक्षित-अनारक्षित जैसी भेदभावमूलक सोच का कोई स्थान न हो। कम से कम इस तरह की अपमानजनक स्थिति तो न पैदा हो जैसी हम आजकल प्रायः प्रतिदिन देखते रहते हैं।

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