राष्ट्रपति भवन का गरिमामय ‘राष्ट्रपति दरबार’


 देश में राष्ट्रपति पद की गरिमा कुछ इस प्रकार की है कि सामान्य व्यक्ति राष्ट्रपति को विदेशी मेहमानों की आवभगत करने वाले राष्ट्राध्यक्ष, गणतंत्र दिवस तथा अन्य महत्वपूर्ण समारोहों में देश के प्रथम नागरिक के रूप में उपस्थित रहने, संसद द्वारा पारित कानूनों के लागू होने के लिए अंतिम रूप से स्वीकृति प्रदान करने और मृत्यु दंड पाए व्यक्ति को क्षमा दान कर सकने वाली विभूति के रूप में जाना जाता है। हमारे देश में राष्ट्रपति का पद और उसका अधिकारक्षेत्र कुछ इस तरह का हैं कि उससे किसी सामान्य नागरिक को कोई अधिक अंतर नहीं पड़ता।
राष्ट्रपति भवन परिसर के बारे में बापू गांधी का ये विचार था कि स्वतंत्र भारत में इसे चिकित्सा या शिक्षा के बड़े संस्थान के रूप मंे उपयोग में लाया जाए। आज ये अपनी भव्यता लिए हुए मुगल गार्डन, स्थापत्य कला और लुटियन की वास्तुकला के बेहतरीन शाहकार के रूप में जाना जाता है।
हालांकि राष्ट्रपति से इस बात की अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे सरकारी काम काज में कोई दखलन्दाजी, नुक्ताचीनी करें या कोई सलाह मशविरा दें, फिर भी लोकतंत्र में उनकी भूमिका कुछ इस तरह की हो सकती है कि यदि किसी व्यक्ति के साथ अन्याय हुआ हो और उसे सब ओर से निराशा हाथ लगी हो तो वह राष्ट्रपति के पास अंतिम गुहार लगाने के लिए जा सके।
कुछ विद्वान कह सकते हैं कि राष्ट्रपति के पास कहां इतनी फुर्सत, तामझाम होता है कि वे किसी पीडि़त व्यक्ति को न्याय दिलाने के लिए स्वयं कोई कार्रवाई करें। यही भ्रम जनता को राष्ट्रपति तक न पहुचने देने के लिए अवरोधक का काम करता है। जरा सोचिए, यदि राष्ट्रपति की तरफ से पीडित व्यक्ति को न्याय दिलाने में पहल की जाती है तो शासन को भय रहेगा कि उस के दंड  के अधिकार को चुनाती देने के लिए पीडि़त के पास एक अंतिम ठौर भी है, जहां न्याय होना निश्चित है। ये ठीक वैसा ही है जैसे कि राष्ट्रपति मृत्यु दंड के लिए क्षमा दान कर सकते हैं तो किसी पीडि़त को इंसाफ दिलाने या न्याय में होने वाली देरी के लिए भी अपने अधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं।
राष्ट्रपति के सवैंधानिक अधिकारो के तहत किसी भी आदेश, अध्यादेश, कानून लागू करने से लेकर संविधान संशोधन तक में राष्ट्रपति की मुहर लगना आवश्यक है। सत्य ये भी है कि यदि राष्ट्रपति का मन हस्ताक्षर करने की गवाही न दे तब भी उन्हें हस्ताक्षर तो करने ही होंगे। ज्यादा से ज्यादा केवल पुनःविचार करने का अनुरोध सरकार से कर सकते हैं और यदि सरकार उसे अस्वीकार कर अपनी ही बात पर अड़ी रहती है तो राष्ट्रपति के पास दस्तखत करने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प है ही नहीं।
व्यवस्था परिवर्तन की पहल
हमारे देश में जो राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था है उसमें जाने अनजाने आभास होता रहता है कि उसमें ईमानदार को दुलत्ती और बेईमान को तरक्की की असीमित संभावनाएं हैं। किसी भी छोटे से लेकर बडे़ से बड़े अधिकारी का तबादला या उसे दंंिडत किया जा सकता है अगर उसकी कार्यशैली उसके आकाओं के मन के मुताबिक नहीं है। यदि राष्ट्रपति से गुहार लगाने का एक अंतिम अवसर उपलब्ध है तो कदाचित उसके साथ ज्यादती करने वाले अधिकारी से लेकर सरकार के सर्वेसर्वा तक में भय व्याप्त हो सकता है।
हमारे यहां चाहें पुलिस अधिकारी हो, प्रशासनिक अधिकारी हो, सामान्य कर्मचारी हो या फिर कोई सामान्य नागरिक ही क्यूं न हो यदि उसने किसी राजनीतिज्ञ या ऊंची पहुंच रखने वाले किसी व्यक्ति से पंगा ले लिया तो फिर समझ लीजिए कि उसने ‘आ बैल मुझे मार‘ की कहावत को साकार कर दिया।
अभिनेता दिलीप कुमार की फिल्म का ये गाना याद आता है ‘रामचद्र कह गए सिया से ऐसा कलियुग आएगा, हंस चुगेगा दाना तिनका और कौवा मोती खाएगा।  वर्तमान परिस्थितियों में ये गाना पूरी तरह फिट बैठता है। अगर ऐसा नहीं होता तो बहुत कम पढे़-लिखे से लेकर अनपढ़ तक देश के मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री न बन पाते । यहां तो हाल ये है कि आप किसी राजनेता के घर जन्में है तो जिस तरह एक अभिनेता का बेटा निश्चित रूप से हीरो का रोल ही करेगा, उसी तरह राजनेता का बेटा तो राज करने के लिए ही पैदा हुआ है। विडंबना यह कि जनतंत्र या लोकतंत्र की दुहाई देने वाले हमारे देश में ऐसा होना बहुत मामूली सी बात है।  राष्ट्रपति को ये अधिकार हो कि अगर कोई व्यक्ति किसी सवैंधानिक पद के कतई योग्य नहीं है तो वे उसकी नियुक्ति पर रोक लगा सकते हैं। इससे उम्मीद है कि हमारी राजनीतिक गंदगी की काफी हद तक सफाई हो जाए।
हमारे देश में पद, जाति, लिंग और धर्म के आधार पर ही इस बात की विवेचना होती है कि कौन न्याय का अधिकारी है और कौन अन्याय का। हमारी राजनैतिक, प्रशासनिक और आर्थिक व्यवस्था का आधार भी इन्हें ही माना जाता है। हम समान अधिकार होने का चाहें कितना भी ढोंग करें, हकीकत यही है कि सत्ताधारी या जिसके हाथ में ताकत है, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस‘ की नीति पर ही चलता हैै।
विशेषाधिकारों का कमाल
हमारे यहां एक और मज़ेदार हकीकत ये है कि अक्सर ऐसे विशेषाधिकारों के बारे में सुना जाता है जिनका संविधान या कानून की किसी किताब में उल्लेख नहीं होता बल्कि रसूखदार  व्यक्ति, सांसद, विधायक, अपने अपने विशेषाधिकार स्वयं गढ लेते हैं। किसी का साहस नहीं कि विरोध कर सके। हालत ये है कि गली मोहल्ले के छुटभइए नेता भी अपना विशेषाधिकार समझते हैं कि जिसकी चाहे उसकी टोपी उछाल दें, जिसको  चाहें जैसी भी सजा दें।
इसके उदाहरण खोजने के लिए बहुत दूर नहीं जाना होगा।  एक पुलिस अधिकारी ने किसी नेता का चालान करने की कार्यवाही की और उसे अपनी ही भाषा में डांट दिया तो उस अधिकारी का ट्रांसफर कर दिया गया और टीवी पर उस दल के नेता ने सफाई दी कि उस अधिकारी की कार्रवाई गलत नहीं थी लेकिन उसके बात करने का लहजा उन्हें पसंद नहीं था। दूर क्यूं जाएं आज गौरक्षा, मंदिर में प्रवेश या फिर सड़क पर यातायात रोककर भाषण बाजी करने से ले कर सार्वजनिक स्थानों पर रैलियां प्रर्दशन करना व्यक्ति विशेष या दल का विशेषाधिकार समझा जाता है कि ‘मैं चाहें ये करूं मै चाहें वो करूं मेरी मरजी ।‘  अगर इस मर्जी को रोकने के लिए राष्ट्रपति के पास गुहार लगाने का इंतजाम हो तो एक आम आदमी को कुछ तो राहत मिलने की उम्मीद हो ही सकती है।
यह कैसे विशेषाधिकार हैं कि जिसमें किसी दोषी को गिरफ्तारी से मुक्ति मिल जाती है,  नियमानुसार व्यवहार न करने की छूट मिल जाती है। एक सांसद को वायुयान कर्मचारी के साथ बदतमीज़ी करने पर रोका गया तो उसने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए अपनी मनमानी को जायज ठहराने की भरसक कोशिश की। लोकतंत्र में जब हम बराबरी के सिंद्धांत की बात करते हे तो फिर इन विशेषाधिकारांे की जरूरत कहां रह जाती है। इसका सीधा अर्थ है कि सामान्य व्यक्ति के अधिकार चाहें न हों, लेकिन खास व्यक्तियों के विशेषाधिकार हैं!
राष्ट्रपति महोदय से अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वे  व्यक्तिगत लाभ के लिए बनाए इन सभी विशेषाधिकारों को समाप्त करने की पहल करें। विशेषाधिकार प्राप्त सांसद के रूप में विजय माल्या को लंदन तक पहुंचने से भी नहीं रोका जा सका। इन्हीं विशेषाधिकारों की आड़ लेकर राजनेता और व्यापारी अपनी स्वयं की वैकल्पिक सत्ता स्थापित कर लेते हैं और किसी की हिम्मत भी नही होती कि काई उनके अभेद्य किले में सेंध भी लगा सके।
यदि वर्तमान राष्ट्रपति भवन में कोई ऐसी व्यवस्था हो जाए कि पीडित व्यक्ति गेट के बाहर लगी कॉल बैल बजाकर न्याय पाने की दुहाई दे सके तो बहुत बड़ा परिवर्तन हो सकता हैै। राष्ट्रपति भवन राष्ट्रपति दरबार के रूप में स्थापित हो जाए तो इस सर्वोच्च पद की गरिमा में चार चांद लग जाएंगे। राष्ट्रपति जी से उनके कार्यकाल में कुछ ऐसे ही अनूठे और अनोखे नियम बनाने की अपेक्षा करना एक सामान्य व्यक्ति के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है। sourse:24x7livetv.com 

Post a Comment

0 Comments