पुत्रदा एकादशी पर कैसे करें मनोकामना पूरी


पुत्रदा एकादशी व्रत को शास्त्रों एवं पुराणों में काफी महत्व दिया गया है। यह व्रत भगवान विष्णु और उनकी योगमाया को समर्पित है। जो व्यक्ति एकादशी का व्रत करते हैं उनका लकिक और पारलकिक जीवन संवर जाता है। यह व्रत रखने वाला धरती पर भी सुख पाता हैं और जब आत्मा देह का त्याग करती है तो उसे विष्णु लोक में स्थान प्राप्त होता है।
ज्योतिषियों के अनुसार यह व्रत बहुत ही शुभ फलदायक होता है इसलिए संतान प्राप्ति के इच्छुक लोगों को यह व्रत अवश्य रखना चाहिए जिससे कि उसे मनोवांछित फल की प्राप्ति हो सके।

क्या करें : -

जो भक्त एकादशी का व्रत करता है उसे एक दिन पहले ही अर्थात दशमी तिथि की रात्रि से ही व्रत के नियमों का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए। दशमी के दिन शाम में सूर्यास्त के बाद भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए और रात्रि में भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए सोना चाहिए। सुबह सूर्योदय से पहले उठकर नित्य क्रिया से निवृत्त होकर स्नान करके शुद्ध व स्वच्छ धुले हुए वस्त्र धारण करके श्रीहरि विष्‍णु का ध्यान करना चाहिए। अगर आपके पास गंगाजल है तो पानी में गंगा जल डालकर नहाना चाहिए। इस पूजा के लिए श्रीहरि विष्णु की फोटो के सामने दीप जलाकर व्रत का संकल्प लेने के बाद  कलश की स्थापना करनी चाहिए।
फिर कलश को लाल वस्त्र से बांधकर उसकी पूजा करें। भगवान श्रीहरि विष्णु की प्रतिमा रखकर उसे स्नानादि से शुद्ध करके नया वस्त्पहनाएं। इसके बाद धूप-दीप आदि से विधिवत भगवान श्रीहरि विष्णु की पूजा करें और नैवेद्य और फलों का भोग लगाकर प्रसाद वितरण करें।
 श्रीहरि विष्णु को अपने सामर्थ्य के अनुसार फल-फूल, नारियल, पान, सुपारी, लौंग, बेर, आंवला आदि अर्पित किए जाते हैं। एकादशी की रात में भगवान का भजन-कीर्तन करना चाहिए। पूरे दिन निराहार रहकर संध्या समय में कथा आदि सुनने के पश्चात फलाहार किया जाता है। दूसरे दिन ब्राह्मणों को भोजन तथा दान-दक्षिणा अवश्य देनी चाहिए, उसके बाद खाना खाना  चाहिए।
 इस दिन दीपदान करने का बहुत महत्व है। इस व्रत के पुण्य से मनुष्य तपस्वी, विद्वान, पुत्रवान और लक्ष्मीवान होता है तथा सभी सुखों को भोगता है।
व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है।
व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। कुछ कारणों की वजह से अगर कोई प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं है तो उसे मध्यान के बाद पारण करना चाहिए।
पुत्रदा एकादशी की कथा
पद्म पुराण में वर्णित है कि धर्मराज युधिष्ठिर श्री कृष्ण से एकादशी की कथा एवं महात्मय का रस पान कर रहे थे। उस समय उन्होंने भगवान से पूछा कि मधुसूदन पष शुक्ल एकादशी के विषय में मुझे ज्ञान प्रदान कीजिए। तब श्री कृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं। पष शुक्ल एकादशी को पुत्रदा एकादशी कहते हैं|
इस व्रत को विश्वदेव के कहने पर भद्रावती के राजा सुकेतु ने किया था। राजा सुकेतु प्रजा पालक और धर्मपरायण राजा थे। उनके राज्य में सभी जीव निर्भय एवं आन्नद से रहते थे, लेकिन राजा और रानी स्वयं बहुत ही दुखी रहते थे। उनके दु:ख का एक मात्र कारण पुत्र हीन होना था। राजा हर समय यह सोचता कि मेरे बाद मेरे वंश का अंत हो जाएगा। पुत्र के हाथों मुखाग्नि नहीं मिलने से हमें मुक्ति नहीं मिलेगी। ऐसी कई बातें सोच सोच कर राजा परेशान रहता था। एक दिन दु:खी होकर राजा सुकेतु आत्म हत्या के उद्देश्य से जंगल की ओर निकल गया। संयोगवश वहां उनकी मुलाकात ऋषि विश्वदेव से हुई।
राजा ने अपना दु:ख विश्वदेव को बताया। राजा की दु:ख भरी बातें सुनकर विश्वदेव ने कहा राजन आप पष शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत कीजिए, इससे आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। राजा ने ऋषि की सलाह मानकर व्रत किया और कुछ दिनों के पश्चात रानी गर्भवती हुई और पुत्र को जन्म दिया। राजकुमार बहुत ही प्रतिभावान और गुणवान हुआ वह अपने पिता के समान प्रजापालक और धर्मपरायण राजा हुआ।

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